अलंकार

<h2<अलंकार –

काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वों को अलंकार कहते हैं अर्थात् जिस माध्यम से काव्य की शोभा में वृद्धि होती है , उसे अलंकार कहा जाता है |

अलंकार का सामान्य परिचय –

अलंकार को और स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें समाज की तरफ ध्यान देना होगा | समाज में हम देखते है कि लोग अपने को अच्छा दिखाने के लिए तरह-तरह के प्रयोग करते रहते हैं | उसी प्रकार कवि अपनी कविता को सुंदर , आकर्षित एवं प्रभावशाली बनाने के लिए शब्द और अर्थ के माध्यम से पूर्ण प्रयास करता है ;उसे ही अलंकार कहते है | जैसे – समाज में आभूषण को अलंकार कहते है ,उसी प्रकार साहित्य में शब्द और अर्थ के माध्यम से हुए चमत्कार को अलंकार कहते है |

अलंकार को परिभाषित करते हुए संस्कृत के विद्वान दण्डी ने कहा है –“ काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते |” दण्डी के इस सूत्र का व्यापक प्रचार – प्रचार हुआ | परवर्ती विद्वानों ने भी इस सूत्र से अलंकार को व्याख्यायित किया | संस्कृत साहित्य के अनेक विद्वानों ने अलंकार की विस्तृत व्याख्या की है | संस्कृत साहित्य के प्रमुख अलंकारवादी आचार्य है- आचार्य भामह ,आचार्य दण्डी,आचार्य उद्भट् , आचार्य ऊद्रट आदि |

हिंदी साहित्य में अलंकार की परम्परा को अग्रसर करने का कार्य आचार्य कवि केशव दास ने किया | केशवदास ने अलंकार को काव्य का मुख्य अंग माना | अलंकार की आवश्यकता को उनके एक दोहे से समझा जा सकता है –

जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त |

भूषण विन न विराजहिं , कविता बनिता मित्त

--केशवदास

अलंकार के भेद –

मुख्य रूप से अलंकार के दो भेद है –

    • शब्दालंकार
    • अर्थालंकार

शब्दालंकार – जहाँ शब्द के माध्यम से काव्य की शोभा में वृद्धि होती है , वहाँ शब्दालंकार होता है | अनुप्रास, यमक आदि अलंकार शब्दालंकार हैं |
अर्थालंकार – जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य की शोभा में वृद्धि होती है , वहाँ अर्थालंकार होता है | उपमा ,रूपक , अतिशयोक्ति आदि अर्थालंकार है |

नोट – जहाँ शब्द और अर्थ दोनों के माध्यम से काव्य की शोभा में वृद्धि होती है | वहाँ उभयालंकार होता है | उभयालंकार का अलग से वर्णन नहीं किया जायेगा | किसी न किसी रूप से ये अलंकार शब्दालंकार एवं अर्थालंकार में समाहित है |

अलंकारों की संख्या –

अलंकारों का इतिहास 2000 वर्ष या उससे भी अधिक पुराना है | अलंकारों की संख्या के विषय में मतभेद है | अनेक विद्वानों ने 108 अलंकारों तक का वर्णन किया है तो बहुत से विद्वान अलंकारों की संख्या 200 तक पहुँचा ही है |इसके विषय में अधिक चिंतन न करते हुए हम यहाँ प्रमुख रुप से प्रयोग में आने वाले शब्दालंकार एवं अर्थालंकार का वर्णन करेंगे |

          प्रमुख शब्दालंकार

प्रमुख शब्दालंकारों का वर्णन निम्न है –

1.अनुप्रास अलंकार -

    काव्य के जिस पंक्तिमें एक ही वर्ण कई बार आता है , वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है |

उदाहरण –

चरू चंद की चंचल किरणे , खेल रही है जल –थल में |

इस उदाहरण में ‘ च ’ वर्ण की आवृत्ति हुई है , अर्थात् ‘ च ’ वर्ण कई बार आया है | अत: अनुप्रास अलंकार है |

अनुप्रास अलंकार के भेद – अनुप्रास अलंकार के पाँच भेद हैं-

    • छेकानुप्रास
    • वृत्यनुप्रास
    • लाटानुप्रास
    • श्रुत्यानुप्रास
    • अंत्यानुप्रास
    • छेकानुप्रास – जहाँ एक या अनेक व्यंजनों का प्रयोग केवल दो बार होता है वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है | छेक का आर्थ विदग्ध या चतुर होता है |

उदाहरण
वंदऊ गुरु पद पदुम परागा | सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ||
वर दंत की पंगति कुंद कली |

ऊपर के उदाहरण में ‘ स’ और ‘ र’ की आवृत्ति हुई है | इसके बाद वाले उदाहरण में ‘ क’ वर्ण की आवृत्ति दो बार हुई है |

 

  • वृत्यनुप्रास –

 

    जहाँ वृत्ति के अनुसार एक या एक से अधिक व्यंजनों की आवृत्ति दो से अधिक बार हो , वहाँ वृत्यनुप्रास अलंकार होता है |

वृत्तियों के तीन प्रकार हैं –

  • कोमला- जहाँ कोमल अक्षरों की प्रधानता होती है जैसे –य,र,ल,व स आदि |
  • परुषा – जाहाँ ओज की व्यंजना करने वाले कठोर शब्द हो | जैसे ट वर्ग के वर्ण , द्वित्य वर्ण आदि |
  • उपनागरिका- इसमें सानुनासिक वर्ण आते हैं |

उदाहरण –

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये |

झुके कूल सौ जल परसन हित मनहुँ सुहाये ||

उपर्युक्त उदाहरण में ‘ त ’ पाँच बार आया है |

 

  • लाटानुप्रास –

 

    जहाँ वाक्य में समान शब्द समूह या थोड़ा सा हेर –फेर करके कई बार आते है , परंतु उनके अर्थ समान होते है | कहीं – कहीं विरामादि चिह्न बदल जाने से वाक्य का अर्थ भी बदल जाता है ; वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है |

उदाहरण –

पराधीन जो जन , नहीं स्वर्ग, नरक ता हेतु |

पराधीन जो जन नहीं , स्वर्ग नरक ता हेतु ||

ऊपर के उदाहरण में दोनो वाक्य समान है | परंतु अल्पविराम बदल जाने से अर्थ में परिवर्तन हो जाता है |

 

  • श्रृत्यानुप्रास-

 

    जहाँ समान उच्चारण वाले एक ही वर्ग के वर्णों की आवृत्ति होती है तो वहाँ श्रृत्यानुप्रास होता है |

उदाहरण –

दिनांत था ,थे दिनानाथ डूबते ,

सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे |

इसमें त वर्ग के वर्ण – त ,थ , द , ध न की आवृत्ति |

 

  • अंत्यानुप्रास –

 

    छंद के चरणांत में समान वर्णों के आने पर अथवा अंत में तुक मिलने पर अंत्यानुप्रास अलंकार होता है |

उदाहरण –

मांगी नाव न केवटु आना |
कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना ||

गुरू पद रज मृदु मंजुल अंजन
नयन अमिय दृग दोष विभंजन ||

 

  • 2.यमक अलंकार – जहाँ एक शब्द दो या बार आता हो; तथा प्रत्येक बार उसका अर्थ भिन्न-भिन्न होता है | वहाँ यमक अलंकार होता है |

 

उदाहरण –
कनक – कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय |
वा खाए बौराय जग ,या पाए बौराय ||

इस उदाहरण में कनक शब्द दो बार आया है | जिससे प्रथम कनक का अर्थ है –धतुरा | वहीं दूसरे कनक का अर्थ है – सोना ( धातु ) |

काली घटा का घमण्ड घटा |
इसमें पहली बार घटा का अर्थ बादलों के काले रंग की ओर संकेत करता है तथा दूसरी बार घटा का अर्थ बादलों के कम होने का संकेत कर रहा है |

  • 3. श्लेष अलंकार- जहाँ किसी शब्द का प्रयोग एक बार होता है , परंतु उसके एक से अधिक हो , वहाँ श्लेष अलंकार होता है |

 

उदाहरण –

चरण ,धरत चिंता करत , भावत नींद न शोर |
सुबरन को ढूँढत फिरत , कवि ब्याभिचारी , चोर ||

इस उदाहरण में सुबरन के तीन अर्थ है – पहला अर्थ सुबरन का अर्थ सुंदर वर्ण ( अक्षर ) कवि के संदर्भ में , दूसरा सुबरन का अर्थ सुंदर रंग वाली स्त्री( व्याभिचारी या कामी पुरूषके संदर्भ में ) , तीसरा अर्थ सुबरन का अर्थ- स्वर्ण ( सोना ) चोर के संदर्भ में |

रहिमन पानी राखिये ,बिन पानी सब सून |
पानी गये  न  ऊबरै , मोती  मानुष  चून ||

इस उदाहरण के दूसरी पंक्ति में पानी के तीन अर्थ है | पहला अर्थ- मोती के संदर्भ में चमक या कांति | दूसरा अर्थ- मनुष्य के संदर्भ में पानी का अर्थ सम्मान या इज्जत | तीसरा अर्थ- चूने के संदर्भ में साधारण पानी है |

          प्रमुख अर्थालंकार

प्रमुख अर्थालंकारों का वर्णन निम्न हैं –

 

  • 1. उपमा अलंकार – जहाँ एक वस्तु की किसी दूसरी वस्तु से गुण , धर्म , रंग , स्वाभाव आदि के आधार पर समानता या तुलना की जाती है ; वहाँ उपमा अलंकार होता है | उपमा का अर्थ होता है – तुलना |

 

उदाहरण – पीपर पात सरिस मन डोला |

इस उदाहरण में

मन – उपमेय

पीपर पात – उपमान

डोला – साधारण  धर्म

के समान- वाचक शब्द

उपमा अलंकार के अंग – उपमा अलंकार के चार अंग है |

 

  • उपमेय
  • उपमान
  • साधारण धर्म
  • वाचक शब्द

 

उपमेय – जिसका वर्णन करना होता है | जिसकी उपमा दी जाती है | उसे उपमेय कहते है |
उदाहरण –राम कामदेव के समान सुंदर है |

इस वाक्य में राम की सुंदरता का वर्णन किया गया है ; इसलिए राम उपमेय हैं |

उपमान –जिस वस्तु या व्यक्ति से उपमा दी जाय ,उसे उपमान कहते है|

उदाहरण – राम कामदेव के समान सुंदर हैं | इस वाक्य में राम की सुंदरता कामदेव से की गयी है | अत: कामदेव उपमान है |

साधारण धर्म – जब दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जिस गुण , धर्म की सहायता ली जाती है ; तो उसे साधारण धर्म कहते है |
उदाहरण – राम कामदेव के समान सुंदर है इस वाक्य में ‘ सुंदर ’ साधारण धर्म है |

वाचक शब्द – जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता दिखाने के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है | उसे उपमा का ‘ वाचक शब्द ’ कहते है | वाचक शब्द है – समान , सदृश , सम , सरिस , तुल्य आदि |

उदाहरण – राम कामदेव के समान सुंदर है | इस वाक्य में ‘ समान ’ वाचक शब्द है |

उपमा अलंकार के भेद – उपमा अलंकार के तीन भेद है |

 

  • पूर्णोपमा
  • लुप्तोपमा
  • मालोपमा

 

पूर्णोपमा अलंकार – जहाँ उपमा के चारों अंग विद्यमान हो ; वहाँ पूर्णोपमा अलंकार होता है |

उदाहरण – नील गगन सा शांत हृदय था हो रहा |

इस उदाहरण में

उपमेय – हृदय

उपमान – नील गगन

साधारण धर्म – शांत

वाचक शब्द- सा |

लुप्तोपमा अलंकार – जिस उपमा के चारों अंग विद्यमान न हो अपितु एक या दो अंग लुप्त हों, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है|
उदाहरण –
नीरवता सी शिला चरण से टकराता फिरता पवमान |

उपमेय – शिलाचरण

उपमान – नीरवता

वाचक शब्द – सी

मालोपमा अलंकार – जिस उपमा में एक ही उपमेय के अनेक उपमान होने से एक माला सी तैयार हो जाती है | इस लिए मालोपमा कहा गया है |

उदाहरण –

कुंद तुषार हार हीरे के सदृश धवल ,

वीणा का वर दण्ड हाथ में शोभित अति उज्ज्वल |

ब्रह्मा, विष्णु , महेश आदि से पूज्य शारदा माता ,

करे सदा कल्याण ज्ञानदा निर्मल बुद्धि विधाता ||

इस उदाहरण में

उपमेय – शारदा

उपमान – तुषार हार , कुंद , हीरा

साधारण धर्म – धवलता

वाचक शब्द – सदृश

 

  • 2.रूपक अलंकार –

जहाँ उपमेय और उपमान में भेद न करके एक रुपता दिखाई जाय ; वहाँ रूपक अलंकार होता है |
उदाहरण-

 

“ चरण कमल वंदौ हरि राई ” |

इस उदाहरण में उपमेय और उपमान में समानता न बतलाकर एक रूपता दिखाई गयी है | यहाँ भगवान के कमलवत चरणों की वंदना की गयी है |

रूपक अलंकार के भेद – रूपक के कई भेदों का वर्णन किया जाता है | जिससे प्रमुख है –

    • सांगरूपक अलंकार
    • निरंग रूपक अलंकार
    • पारस्परिक रूपक अलंकार

 

  • सांग रूपक अलंकार –

जहाँ उपमेय में उपमान के अंगों का भी आरोप होता है ; वहाँ सांग रूपक अलंकार होता है |

 

उदाहरण –

उदित उदयगिरि मंच पर , रघुवर बाल पतंग |

विकसे संत सरोज सब ,हरषै लोचन भृंग ||

निरंग रूपक अलंकार – जहाँ केवल उपमेय पर उपमान का अभेद होता है ; वहाँ निरंग रूपक अलंकार होता है | निरंग रूपक में अंगों का आरोप नहीं होता है |

उदाहरण –

ओ चिंता की पहली रेखा अरे विश्व वन की व्याली |

ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कम्प सी मतवाली ||

परम्परिक रूपक अलंकार – जिस रूपक में एक आरोप दूसरे आरोप का कारण होता है ; वहाँ परम्परिक रूपक अलंकार होता है | इसमें एक आरोपी दूसरे का कारण बनकर आरोपों की परम्परा बनाता है | इसको इस रूप में कह सकते है कि एक रूपक के द्वारा दूसरे रूपक की पुष्टि होती है | दूसरे रूपक से पहला रूपक जुड़ा होता है |

उदाहरण –

 

  • उदयो ब्रजनभ आइ यह हरि मुख मधुर मयंक
  • महिमा –मृगी कौन सुकृती की , खल –वच विसिखिन बाँची ?

 

इस उदाहरण में महिमा में मृगी का आरोप , दुष्ट वचन में बाण का आरोप है | इस कारण परम्परिक रूपक अलंकार है |

 

  • 3. उत्प्रेक्षा अलंकार – जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाती है ;वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है | उत्प्रेक्षा अलंकार में जनु , जानो , मनु , मानो ,मनहु , जनहुँ आदि बाचक शब्दों का प्रयोग होता है |

 

उदाहरण –

सोहत ओढ़े पीत पट , स्याम सलोने गात |

मनौ नीलमनि सैल पर , आतप पर् यौ प्रभात ||

उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद – इसके तीन भेद है –

 

  • वस्तूत्प्रेक्षा
  • हेतूत्प्रेक्षा
  • फलोत्प्रेक्षा

 

 

  • वस्तूत्प्रेक्षा –

जहाँ किसी उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जाती है ; वहाँ वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है |

 

उदाहरण –

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा |

मानो हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ||

इस उदाहरण में उपमेय ‘ क्रोध ’ में उपमान ‘ हवा के वेग ’ की तथा उपमेय ‘ तन ’ में उपमान ‘ सागर ’ की सम्भावना बतायी गई है |

 

  • हेतूत्प्रेक्षा अलंकार –

जहाँ उत्प्रेक्षा के जिस रुप में सम्भावना के मूल में कोई हेतु या कारण विद्यमान हो ; वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है |

 

उदाहरण –

धिर रहे थे घँघराले बाल,

अंस अवलम्बित मुख के पास ,

नील घन शावक से सुकुमार ,

सुधा भरने को विधु के पास |

 

  • फलोत्प्रेक्षा अलंकार –

जहाँ किसी फल या प्रयोजन की सम्भावना की जाती है ; वहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है |

 

उदाहरण –
नित्य ही नहाता क्षीर सिंधु में कलाधर है |
सुंदर तवानन की समता की इच्छा से ||

खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात |
बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात ||

 

  • 4. दृष्टांत अलंकार – जहाँ वाक्य में कोई बात कही जाती हो तथा उसी बात को पुष्ट करने के लिये दृष्टांत दिया जाता है ; वहाँ दृष्टांत अलंकार होता है | इस अलंकार में बिम्ब – प्रतिबिम्ब भाव ( भाव साम्य ) दिखाया जाता है |

 

उदाहरण –

 

  • सठ सुधरहिं सत संगति पाई |पारस परस कुधात सुहाई ||
  • रहिमन अँसुआ नयन ढरि , जिय दु:ख प्रकट करेइ |

 

जाहि निकारो गेह ते , कस न भेद कहि देइ |

 

  • 5. अतिशयोक्ति अलंकार – जहाँ किसी बात का वर्णन इतना बढ़ा चढ़ाकर किया जाय कि वास्तव में वह सम्भव न हो ; वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है |

 

उदाहरण –

हनुमान की पूँछ में लगन न पायी आगि |

सगरी लंका जल गई , गये निसाचर भागि ||

 

  • 6. विरोधाभास अलंकार – जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास होता है | वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है | इस अलंकार में दो विरोधी पदार्थों का संयोग एक साथ दिखाया जाता है |

 

उदाहरण –

आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के |

शून्य हूँ जिसमें बिछे है पांवड़े पलकें ||

 

  • 7. असंगति अलंकार – कार्य और कारण के संगति का न होना | अर्थात जहाँ कार्य कहीं और हो तथा कारण कहीं और होता है | वहाँ असंगति अलंकार होता है |

 

उदाहरण –

1. “ हृदय घाव मेरे पीर रघुवीरै | ”
2. दृग उरझत , टूटत कुटुम ,जुरत चतुर चित प्रीति |
परति गाँठ दुरजन हिये, दई नई यह रीति ||

 

  • 8. प्रतीप अलंकार – जहाँ उपमेय को उपमान तथा उपमान को उपमेय बना दिया जाता है ; वहाँ प्रतीप अलंकार होता है | ‘ प्रतीप ’ शब्द का अर्थ ‘उल्टा ’ होता है |

 

उदाहरण –

उसी तपस्वी से लम्बे थे ,

देव दारू दो चार खड़े   |

 

  • 9. संदेह अलंकार- जहाँ किसी वर्ण्य वस्तु को देखकर निश्चय नहीं हो पाता कि वास्तव में वह क्या है ? संदेह की स्थिति बनी रहती है | उपमान और उपमेय में निश्चय नहीं हो पाता है ; वहाँ संदेह अलंकार होता है |

 

उदाहरण –
1.मद भरे ये नलिन नयन मलीन हैं |
अल्प जल में या विकल लघु मीन हैं ||

2.सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है ,
कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है ||

 

  • 10. भ्रांतिमान अलंकार - जहाँ समानता के कारण किसी वस्तु ( उपमेय ) में अन्य वस्तु ( उपमान ) का भ्रम हो जाता है | वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है | इस अलंकार में जिस वस्तु का भ्र्म होता है वास्तव में वह वस्तु नहीं होती हैं | केवल उसे लगता है और क्रिया – कलाप भी उसी प्रकार होते हैं | उसे पूर्ण रूप से भ्रम हो जाता है |

 

उदाहरण –

1.बिल विचार कर नागशुण्ड में , घुसने लगा विषैला साँप |
काली ईख समझ विषधर को , उठा लिया तब गज ने आप ||

2.नाक का मोती अधर की कांति से,
बीज दाड़िम का समझकर भ्रांति से ,
देख उसको ही हुआ शुक मौन है ,
सोचता है अन्य शुक यह कौन है ?

 

  • 11. विभावना अलंकार – जहाँ पर बिना कारण के ही कार्य होता है ; वहाँ विभावना अलंकार होता है |

 

उदाहरण –

बिनु पग चलै , सुनै बिनु काना |

कर बिनु कर्म , करै बिधि नाना ||

आनन रहित सकल रस भोगी |

बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी ||     [ रामचरित मानस ]

 

  • 12. उदाहरण अलंकार- जहाँ काव्य में किसी एक कथन की पुष्टि करने के लिए दूसरे कथन को उदाहरण के रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाय कि पहले कथन की पुष्टि हो जाती है ; वहाँ उदाहरण अलंकार होता है | इस उदाहरण में जैसे , ज्यों वाचक शब्दों का प्रयोग होता है |

 

उदाहरण –
1.फीकी पै नीकी लगै ,कहिए समय विचारि
सबको मन हर्षित करै , ज्यों विवाह में गारि ||

2. छुद्र नदी भरि चलि उतराई |
जस थोरेहुँ धन खल बौराई ||

 

  • 13.मानवीकरण अलंकार – जहाँ काव्य में जड़ या प्रकृति में चेतना का आरोप होता है ; वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है | इस अलंकार में प्रकृति पर मानवीय क्रियाओं और भावनाओं का वर्णन होता है |

 

उदाहरण –

1. बीती विभावरी जाग री |
अम्बर – पनघट में डुबो रही
तारा – घट ऊषा – नागरी |

2. फूल हँसे कलिया मुसकाई |

 

  • 14. उल्लेख अलंकार – जहाँ किसी एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाता है ; वहाँ उल्लेख अलंकार होता है |

 

उदाहरण-

तू रूप है किरण में सौंदर्य है सुमन में |

तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में ||

तू ज्ञान हिंदुओं में, ईमान मुस्लिमों में |

तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में ||

हे दीनबंधु ऐसी , प्रतिभा प्रदान कर तू |

देखूँ तुझे दृगों में , मन में तथा वचन में ||

कठिनाइयों दु:खों का ,इतिहास ही सुयश है |

मुझकों समर्थ कर तू , बस कष्ट के सहन में ||

दुख में न हार मानूँ ,सुख में तुझे न भूलूँ |

ऐसा प्रभाव भर दे , मेरे अधीर मन में ||    [ रामनरेश त्रिपाठी ]

 

  • 15 विशेषोक्ति अलंकार – जहाँ काव्य में कारण के होने पर भी कार्य नहीं होता है ; वहां विशेषोक्ति अलंकार होता है | इस अलंकार में कार्य सिद्धि के कारण मौजूद रहने पर भी कार्य नहीं होता है |

 

उदाहरण –

नैहिन नैनन को कछु , उपजी बड़ी बलाय |
नीर भरे नित प्रति रहे , तऊ न प्यास बुझाय ||

पानी बिच मीन पियासी |
मोहि सुनि – सुनि आवत हाँसी ||

 

  • 16. अर्थान्तरन्यास अलंकार – जहाँ किसी सामान्य कथन का विशेष कथन से या विशेष कथन का सामान्य कथन से एक दूसरे का समर्थन किया जाता है ;वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है |

 

उदाहरण –

जो रहिम उत्तम प्रकृति , का करि करत कुसंग |

चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग ||

 

  • 17. काव्यलिंग अलंकार – जहाँ किसी उक्ति के समर्थन का कारण भी बताया जाता है ; वहाँ काव्यलिंग अलंकार होता है | इस अलंकार में किसी भी बात के समर्थन का कारण बताया जाता है , जिससे यह स्पष्ट हो सके कि कहीं गयी बात के फलस्वरूप ही समर्थन किया गया है |

 

उदाहरण –

कनक कनक ते सौ गुनी , मादकता अधिकाय |

वा खाए बौराय जग , या पाए बौराय  ||

इस उदाहरण में यह बताया गया है कि ‘ सोने ’ में धतुरे से ज्यादा नशा होता है | जिसकी पुष्टि दोहे के अंतिम पक्ति में हो गई है |

 

  • 18.अपह्नुति अलंकार – जहाँ किसी सत्य बात को छिपाकर झूठ बात कहीं जाती है ; वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है | अपह्नुति का अर्थ छिपाना या निषेध करना होता है | इस अलंकार में उपमेय का निषेध कर उपमान का आरोप किया जाता है |

 

उदाहरण –

किरण नहीं , पावक के कण ये जगतीतल पर गिरते हैं |
फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदे लखाती ,
रोते हैं या निपट सबयों आँसुओं को दिखाके |

 

  • 19. व्यतिरेक अलंकार – जहाँ उपमेय में अधिक गुण होने के कारण उपमान से श्रेष्ठ बताया जाता है ; वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है | इस अलंकार में उपमेय का उत्कर्ष होता है | उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाता है |ऐसे पदों में व्यतिरेक अलंकार होता है | व्यतिरेक का शब्दिक अर्थ होता है – आधिक्य |

 

उदाहरण –

का सरवरि तेहिं देउं मयंकू |

चाँद कलंकी वह निकलंकी ||

इस उदारहण में यह बताया गया है कि मुख की समानता चंद्रमा से कैसे दूँ ? क्योंकि चंद्रमा में तो कलंक है , जबकि मुख में कोई कलंक नहीं है ; निष्कलंक है |

 

  • 20. अन्योक्ति अलंकार – जहाँ पर किसी बात को सीधे न कहकर किसी को आधार बनाकर अन्य के विषय में बात कहीं जाय ; वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है | अन्योक्ति का अर्थ है – अन्य + उक्ति | अर्थात अन्य के प्रति कही गयी उक्ति | इस अलंकार में उपमान के बहाने उपमेय का वर्णन किया जाता है | जो किसी अन्य व्यक्ति की ओर संकेत करता है |

 

उदाहरण –

नहिं पराग नहिं मधुर मधु , नहिं विकास इहिकाल |

अली कली ही सौं बंध्यो , आगे कौन हवाल ||

इस उदाहरण में भौंरे और पराग तो केवल माध्यम है | इनके माध्यम से राजा जयसिंह को सचेत किया गया है |

 

 

 


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