मधुर बुद्ध विचार

    ( लघु खण्ड काव्य )

    वंदना

जय जय जय भारत महान,

बुद्ध धरा को नमस्कार

करते सदा लोकहित काम,

हे दिव्य विभूति सादर प्रणाम ॥1॥

जिनकी कीर्ति चतुर्दिश ओर,

होता भव्य कर्म जय घोष ।

धरती के सब व्यक्ति प्रसन्न,

हे महाबुद्ध शत-शत नमन ॥2॥

जीवों पर दया दृष्टि प्रेम ,

सादा जीवन हो उच्च ध्येय ।

जिनका करता विश्व गान ,

हे शाक्यमुनि शत शत प्रणाम ॥3॥

जन-जन में भर प्रेम अमिट,

पंचशील का देते ज्ञान ।

जिससे होता जगत प्रकाश ,

मुनि तथागत को प्रणाम ॥4॥

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सामाजिक दशा और गृह त्याग

ध्यान मग्न विचार मग्न ,

एकांत को अब चाहते थे ।

भोग विलास राजतंत्र से  ,

दूर हटना चाहते थे ॥5॥

सिद्धार्थ का मन गंभीर होता ,

जब समाज पर दृष्टि डालते ।

रोम-रोम कंपित होता था ,

नर -पशु का व्यवहार देखते ॥6॥

कभी-कभी चिल्ला उठते थे ,

सोच मनुजों पर अत्याचार  ।

ओ धन वालों नहीं चलेगा,

मनुजों पर यह तीव्र प्रघात ॥7॥

इस समाज में फैले हीनभाव,

छुआछूत और भेदभाव ।

तुच्छ स्वार्थ के लिए,

दीन का है अपमान ॥8॥

पाखंड हठी से भरा समाज ,

कुछ नर करते इस पर राज ।

अपनी बात सदा मनवाते ,

प्रश्नोत्तर करने न देते ॥9॥

हर तरह मनाही थी उन पर,

उंगली भी नहीं उठा पाते ।

उत्तर देने वाले नर का ,

हाथ पैर तोड़वा देते ॥10॥

दीन ,गरीब ,असहाय नरों पर,

करते उनके मन पर राज ।

मन भी उनका कुंठित हो गया,

करने लगे पशुवत  कार्य ॥11॥

जो महल इन्हीं के हाथों का था,

राजा करता उन पर नाज ।

इन्हीं गरीबों के ऊपर,

अपना रखता है राजभार ॥12॥

शोषित समाज का हर प्राणी,

चिल्ला उठता था बार – बार ।  

हम भी समाज के अधिकारी हैं ,

हमको दो अधिकार समान ॥13॥

परंतु बात को माने कौन ,

उल्टे मार तुरत देते ।

इसीलिए चिर  मौन हो गए ,

मूक और असहाय हो गए ॥14॥

यह घृणा के पात्र हो गए,

सबके मन का यंत्र हो गए ।

इज्जत भी अब बची नहीं ,

तन का सब कुछ गया लूट ॥15॥

हिंसा भी बढ़-चढ़कर था ,

पशुबलि और नरबलि था ।

दीन-दुखी का हरबलि था ,

हिंसा से भी बढ़कर था ॥16॥

धर्मांधता इतनी फैली थी ,

सब नर उसमें लिप्त हुए ।

लाचार उन्हें सब करना था ,

विश्वास उसी में रखना था ॥17॥

बेचैन हुए हैं राजपुत्र ,

अब महल छोड़ जाना होगा ।

बेचारे असहाय दुखी को ,

फिर  प्रसन्न करना होगा ॥18॥

सिद्धार्थ विचारों में उलझे थे,

कैसे होगा कष्ट दूर ।

उसी सत्य का पता लगाने ,

निश्चित कृत संकल्प हुए ॥19॥

निशा थी अतिगहन अंधेरी ,

आसमान भी काला था ।

राजमहल के सब नर नारी ,

गहन नींद में खोए थे ॥20॥

माता पिता का पुत्र प्यारा ,

अब न इन्हें अच्छा भाता ।

भोजन वस्त्र राजसी बातें ,

सब से नाता तोड़ लिया ॥21॥

पिता शुद्धोधन, माता माया ,

राहुल पुत्र ,पत्नी यशोधरा ।

माया भी अब नहीं रही ,

गहन रात्रि में छोड़ चले ॥22॥

___*____

ज्ञानोदय

छूट गया अब राज वस्त्र ,

खानपान और वेशभूषा ।

रह गया केवल शरीर ,

संन्यासियों की रूपरेखा ॥23॥

शिष्य बन कुछ समय तक ,

वेद ,शास्त्र ,दर्शन ,इतिहास ।

करने लगे सूक्ष्मावलोकन ,

मिली नहीं कुछ भी संतुष्टि ॥24॥

परेशान हो, साधु संत का ,

करने लगे संग- सेवा ।

इससे भी कुछ मिली नहीं ,

हुई न  आत्मा को संतुष्टि ॥25॥

हैरान हो ,संग छोड़-छाड़ ,

करने लगे मौन धारण ।

पीपल के वृक्ष के नीचे ,

बना लिया तप का डेरा ॥26॥

समाधि में तल्लीन हो गए ,

शांत और चुप-चाप हो गए ।

तन की सुधि भी गए भूल ,

विचार मगन ,एकांत हो गए ॥27॥

टूटी  समाधि तब हुआ प्रकाश ,

जिसमें ज्ञान, विचार महान ।

कष्टों का टूटा सब भंडार

धरती भरी ज्ञान प्रकाश ॥28॥

सिद्धार्थ भी अब ” बुद्ध ”  हो गए,

पीपल भी बोधि वृक्ष हो गया ।

पीपल की बड़ी महत्ता आज,

देखा जाता जगत प्रकाश ॥29 ॥

बुद्ध जी की प्रथम यात्रा,

सारनाथ में होती है ।

बिछड़े शिष्य मिले हैं उनको ,

जो कुमार को छोड़ चले थे ॥30॥

बुद्ध जी ने प्रथम उपदेश ,

दिया पंच शिष्यों में भेंट ।

शिष्यों में ज्ञानोदय हुआ,

बुद्ध ने दिया अमर संदेश ॥31॥

ज्ञान प्राप्त कर पांचों शिष्य,

सेवा में ,तन अर्पित कर ।

बोले कातर स्वर में सब,

जय जय जय जय बुद्ध महान ॥32॥

बुद्ध जी का  धम्म चक्र,

लगा घूमने चारों ओर ।

जो भी नर इसको अपनाया ,

सुखी और संतृप्त हो गया ॥33॥

देने लगे बुद्ध जी ज्ञान ,

जिससे होता जगत प्रकाश ।

दीनगरीब , अमीर ,जवान,

हर मनुष्य को होता ज्ञान ॥34॥

पंच भिक्षु से हुए अनेक,

देते जो जन को संदेश ।

जिससे जनता हुई प्रसन्न,

सुख समृद्धि से भरा तंत्र ॥35॥

सत्य ,अहिंसा ,अपरिग्रह,

अस्तेय ,ब्रह्मचर्य ,पंचशील ।

जिसका पालन करता गृहस्थ ,

दश शील  का भिक्षु वहन ॥36॥

ऊबी जनता थी  कर्मकांड से,

जोना- टोना , झाड़-फूंक से ।

देवी ,देवता बहु  प्रपंच से,

जादू और तंत्र- मंत्र से ॥37॥

मिला  सभी को बौद्ध  धर्म ,

जो करता मानव   कल्याण ।

समता , करुणा ,मैत्री ,प्रेम ,

देता है  जो  यह संदेश ॥38॥

मिला बुद्ध  से हर मानव को,

पढ़ने लिखने का अधिकार ।

शिक्षित बनो करो बुद्धि का,

अपने जीवन में उपयोग ॥39॥

लिखा सभी ग्रंथों में है जो ,

पहले उसको मानो मत ।

बुद्धि लगा जब सत्य मिले ,

तब उसको जीवन धारण कर ॥40 ॥

सब प्रपंच से दूर मनुज को ,

मिला स्वच्छ सुंदर पथ है ।

जिसको धारण करना,

हर मनुष्य का अपना मत है ॥41॥

धम्मबुद्धि , संघ शरणों  में ,

होने लगा अटूट विश्वास ।

पंचशील नैतिक कर्मों का ,

करने लगे सभी व्यवहार ॥42॥

निडरता जग में छायी थी,

सब निडर हो गए ,शांत हो गए ।

अपने अपने स्वच्छ कर्म से ,

सुखी और संपन्न हो गए ॥43॥

पशु पक्षी अपने जीवन में ,

करने लगे अभय निवास ।

होने लगा जीवन प्रसन्नचित ,

तन मन पुलकित चंचल चाल ॥44॥

जनहित के उद्धार हेतु,

आए थे बुद्ध महामानव ।

दिखा गए इस जग को अपना ,

विस्तृत जीवन दर्शन ॥45॥

जाँति – पाँति को मिटा सभी ने ,

आपस में कर लिया प्रेम ।

दिखा दिया इस जगह को अपना ,

करुणा मैत्री का संदेश ॥46॥

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संदेश

बुद्ध विचारों से प्रेरित जन,

सबमें अलख जगाना है ।

सोयी वसुधा पर मानवता ,

को फिर वापस लाना है ॥47॥

हे भिक्षु महातम तुम अपने,

नियम संयम में रहो अटल ।

दानवी शक्ति जो बढ़ी धरा पर ,

उसको समाप्त करके बैठो ॥48॥

अत्याचार ,अनीति ,शोषण को ,

धरती से करना है लुप्त ।

सदाचार ,संयम ,विचार से ,

सबका करना संवर्धन ॥49॥

जागो जागो बौद्ध भिक्षुओं ,

जागो हे आचार – विचार ।

करो पुनः सबके मन में ,

मधुमय जीवन का संचार ॥50॥

नहीं किसी से ईर्ष्या द्वेष ,

यह तो उच्च नरों का वेश ।

करते जो ऐसा व्यवहार,

पाते हैं जग में सम्मान ॥51॥

असहाय गरीबों की सेवा में,

निज जीवन अर्पण करना ।

हर मनुष्य का मूल धर्म है ,

जो करता उत्तम फल पाता ॥52॥

जीवन के हर कष्टों का ,

निस्तारण करते रहना ।

संघर्ष नहीं छोड़ा जाता ,

यह जीवन का मार्ग सलोना ॥53॥

सत्कर्म के हर कार्य का ,

संघर्ष सब करते चलो ।

होगी सफलता आज-कल के ,

सोच में तुम न पड़ो ॥54॥

कर्तव्य यदि  करते रहे,

तो सुनिश्चित श्री विजय है ।

यदि विमुख हो  कर्म से ,

तो विफलता साथ में है ॥55॥

यदि समाज में नारी का ,

सम्मान यथोचित होगा ।

तो वसुधा पर मानवता का ,

ज्योतिपुंज निकलेगा ॥56॥

                                                ***समाप्त ****

                            रचयिता –     सुशील कुमार मौर्य

                            रचनाकाल – यह लघु खण्ड काव्य 28-12-1997 से 02-01-1998 के बीच लिखा गया है ।

प्रकाशन का समय – 16-05-2022 ( बुद्ध पुर्णिमा )

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         रचयिता का संक्षिप्त परिचय

रचनाकार का नाम – सुशील कुमार मौर्य

जन्मतिथि – 03/02/1981

शिक्षा – एम. ए . ( हिंदी , संस्कृत ) , बी.एड.

पिता का नाम – स्व. शिवनाथ मौर्य

माता का नाम – स्व. बदामी देवी

स्थाई पता – ग्राम – भवतर , पोस्ट व थाना – गम्भीरपुर , जिला – आज़मगढ़ ( उ.प्र.) भारत , पिन कोड – 276302

मोबाइल नम्बर – 7985042077 , 9984139291

ईमेल – sushilkumarmaurya2@gmail.com

Website – www.hindigyanganga.com

कार्य – हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार एवं उसके उत्तरोत्तर विकास के लिये कार्य करना  ।


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