संस्कृत : धातु रुप प्रकरण

धातु रूप से सम्बंधित सामान्य जानकारियाँ – धातु रूप से सम्बंधित जानकारियाँ निम्न प्रकार समझा जा सकता है –

[1]. धातु – जिन शब्दों के द्वारा किसी काम का करना या होना पाया जाता है , उसे क्रिया कहते है | संस्कृत में क्रिया ‘के मूल शब्दों को “ धातु ” कहते है | धातु शब्द का अर्थ है- स्थापित करना , धारण करना , रखना आदि | पठति, हसति, क्रीडति आदि क्रियाओं की क्रमश: पठ् , हस् , क्रीड् धातुएँ हैं| संस्कृत साहित्य के शब्द , रूपों के रूप में सुरक्षित है  |

[2]. लकार परिचय – वैयाकरणों ने वाक्य में प्रयोग होने वाले क्रिया के काल या वृत्ति को “ लकार ” कहा है | संस्कृत भाषा में लकारों की संख्या 10 ( दस ) है | जिससे विभिन्न कालों एवं स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है | लकारों के सम्बंध में निम्न श्लोक द्वारा प्रकाश डाला गया है —

लट् वर्तमाने लेट् वेदे भूत लुङ् , लङ् , लिट् तथा |

विध्याशिषोsस्तु लिङ् लोटौ लुट् लृट- लृङ् च भविष्यत: |

इसमें इस लकारों का वर्णन है | जो इस प्रकार है – लट् , लिट् , लुट् ,लृट् , लेट् , लोट् , लङ् , लिङ् , लुङ् , लृङ् |

इनमें लेट् लकार का प्रयोग केवल वैदिक संस्कृत में होता है | वहाँ इस लकार का प्रयोग लिङ् लकार के अर्थ में होता है |

इसमे दो प्रकार के लकार होते है – (i) आशिर्लिङ्  (ii) विधिलिङ् |

संस्कृत भाषा के लकार विभिन्न कालों के वाचक होने के साथ – साथ कुछ लकार आज्ञा , आशीर्वाद आदि अर्थ- विशेष को भी द्योतित करते है |

[3] दस लकारों के नाम व अर्थ का सामान्य परिचय – दस लकारों के नाम उनके अर्थ सहित नीचे दिए जा रहे है | पाठक गण उसका अवलोकन अवश्य करें –

 (i). लट् लकार ( वर्तमान काल ) – वर्तमान काल के अर्थ को प्रदर्शित करने के लिए लट् लकार का प्रयोग होता है |

(ii) लङ् लकार ( भूतकाल ) – यदि कोई कार्य भूतकाल ( बीते हुए समय ) में हो तो वहाँ लङ् लकार का प्रयोग होता है |

(iii) लृट् लकार ( भविष्यत काल ) – लृट् लकार भविष्यत् काल का बोध कराता है |

(iv) लोट् लकार ( आज्ञा के अर्थ में ) – यदि वाक्य में आज्ञा या आदेश सम्बंधी कथन हो तो वहाँ लोट् लकार होता है |

(v) विधिलिङ् लकार ( चाहिए के अर्थ में ) – जब किसी को कोई परामर्श या विधि बतानी हो तो वहाँ बिधिलिङ् लकार का प्रयोग होता है |

(vi) लिट् लकार ( परोक्ष भूतकाल ) – भूतकाल की उस अवस्था में लिट् लकार का प्रयोग होता है , वक्ता ने जिसका प्रत्यक्ष दर्शन न किया हो | अर्थात् ऐसा भूतकाल जो अपने साथ घटित न होकर किसी इतिहास का विषय हो | वहाँ लिट् लकार का प्रयोग किया जाता है |

(vii) लुङ् लकार ( सामान्य भूतकाल) – सामान्य भूतकाल के व्यापार को लक्षित करने के लिए इस लकार का प्रयोग होता है | वह काल जो कभी भी बीत चुका हो | इस लकार के नियम बहुत अधिक एवं जटिल है | जिसका विस्तृत अध्ययन हेतु पाठक गण अन्य संदर्भ ग्रंथ का अध्ययन कर सकते है |

(viii) लुट् लकार ( अनद्यतन भविष्य काल )- जो आज का दिन छोड़ कर आगे होने वाला हो , वहाँ लुट् लकार का प्रयोग होता है |

(ix) आशिर्लिङ् लकार (आशीर्वाद हेतु ) – जहाँ किसी को आशीर्वाद देना हो,  वहाँ आशिर्लिङ् लकार का प्रयोग होता है |

(x) लृङ् लकार ( हेतुहेतुमद् भविष्य काल ) – ऐसा होगा तो ऐसा होगा , इस प्रकार के अर्थ देने वाले वाक्यों में लृङ् लकार का प्रयोग होता है |

नोट –संस्कृत के सामान्य जानकारी हेतु प्राय: लोग 5 लकारों यथा – लट् , लङ् , लृट् , लोट् , बिधिलिङ् से ही काम चला लेते है | परंतु विस्तृत जानकारी हेतु दसों लकारों का ज्ञान अपेक्षित है |  

[4] धातु गण – संस्कृत भाषा में धातुओं की संख्या 1880 है , जो दस भागों में विभक्त है | इन धातु समूहों हो “ गण ” कहा जाता है | प्रत्येक गण की प्रतिनिधि धातु होती है , उसी के नाम पर गण का नाम रखा गया है | जिसे निम्न तलिका द्वारा समझा जा सकता है |

            धातुओं के दस गण

क्र.स.      गण का नाम    गण की प्रतिनिधि धातु      गण की कुल धातु संख्या
1 भ्वादिगण भू  1035
2 अदादिगण अद् 72
3 जुहोत्यादिगण हु 24
4 दिवादिगण दिव् 240 /140
5 स्वादिगण सु 35
6 तुदादिगण तुद् 157
7 रुधादिगण रुध् 25
8 तनादिगण तन् 10
9 क्रयादिगण क्री 61
10 चुरादिगण चुर् 321 /411
योग = 1880 *

 

[5] पुरूष – संस्कृत भाषा में तीन पुरूष होते हैं – प्रथम पुरुष , मध्यम पुरुष , उत्तम पुरूष | जिसका विवरण निम्न है –

(i) प्रथम पुरूष – प्रथम पुरुष को अन्य पुरुष भी कहा जाता है | अस्मद् और युष्मद् शब्द के कर्ताओं को छोड़कर शेष सभी जितने भी कर्ता हैं , वे सभी प्रथम पुरूष के अंतर्गत आते है | उदाहरण – स: पठति  | राम: गच्छति | लता खेलति |

(ii) मध्यम पुरुष – इसमें केवल युष्मद् शब्द के कर्ता का प्रयोग होता है | अन्य किसी भी प्रकार के कर्ता का प्रयोग नहीं होता है | उदाहरण- त्वम् पठसि |

युवाम् गच्छथ: | यूयम् लिखथ |

(iii) उत्तम पुरूष- इसमें भी केवल अस्मद् शब्द के कर्त्ता का प्रयोग होता है |अन्य किसी भी प्रकार के कर्त्ता का प्रयोग नहीं होता | उदाहरण – अहम् पठामि | आवाम् गच्छाव: | वयम् पठाम: |

[6] व चन –संस्कृत भाषा में तीन वचन होते हैं – एकवचन , द्विवचन , बहुवचन |

(i) एकवचन – जिससे एक वस्तु/ व्यक्ति का बोध होता है | उसे एकवचन कहते हैं | उदाहरण – बालक: पठति |

(ii) द्विवचन – जिनसे दो वस्तुओं/ व्यक्तियों का बोध होता है | उसे द्विवचन कहते है | उदाहरण – बालकौ पठत: |

(iii) बहुवचन – जिससे दो से अधिक वस्तुओं/ व्यक्तियों+ का बोध होता है | उसे बहुवचन कहते है | उदाहरण- बालका: पठन्ति |

[7] धातुओं के भेद –  संस्कृत भाषा में धातुओं को तीन भागों में बाटा गया है , जिसे तीन पद भी कहते है – परस्मैपद , आत्मनेपद , उभयपद |

(i)  परस्मैपद- ऐसा वाक्य जो कर्तृवाच्य हो , वहाँ परस्मैपद धातु का प्रयोग होता है | यह कर्ता अर्थ में होती है और क्रिया फल की प्राप्ति दूसरों को होती है | अर्थात् जिन क्रियाओं का फल कर्ता को छोड़कर अन्य ( कर्म ) को मिलता है ,उन्हे परस्मैपद धातु कहा जाता है | परस्मैपदी धातु कर्मवाच्य या भाववाच्य में नहीं होता हैं |

परस्मैपदी धातुएँ यथा – गम् , पठ् , लिख् …………. आदि हैं |

(ii) आत्मनेपद – जिन क्रियाओं का फल सीधा कर्ता पर पड़ता हो , उसे आत्मनेपद कहते है | ऐसे वाक्यों में आत्मनेपदी धातुओं का प्रयोग होता है | कर्मवाच्य एवं भाववाच्य में सभी धातुएँ आत्मनेपदी होते हैं |

आत्मनेपदी धातुएँ यथा- नी , लभ् ……… आदि हैं |

(iii) उभयपद – जिन क्रियाओं के रूप परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों प्रकार से चलते है , उन्हे उभयपद कहते है | नियमानुसार रूप का प्रयोग किया जाता है |

उभयपदी धातुएँ यथा – नी , कृ , ब्रू ………… आदि हैं |


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