विद्यापति (1380-1460 ई.)

विद्यापति (1380-1460 ई.)

विद्यापति ने अपने समय में प्रचलित मैथिली भाषा का प्रयोग अपने काव्य में किया हैं | इन्हे मैथिल कोकिल भी कहा जाता है | इनके अधिकतर पद श्रृंगार रस से परिपूर्ण है | इनके पद निम्नलिखित है -

(1)

चाँद-सार लए मुख घटना करू
लोचन चकित चकोरे।
अमिय धोय आँचर धनि पोछल
दह दिसि भेल उँजोरे॥
कुच जुग के वहि बूढ़ निरस उर
कामिनि कोने गढ़ली।
रूप सरूप मोय कहइत असंभव
लोचन लागी रहली॥
गुरू नितम्ब भरे चलए न पारए
माँझहि खीनि निमाई।
भाग जाएत मनसिज धरि राखलि
त्रिवलि लता अरूझाई॥

(2)

कामिनि करम सनाने
हेरितहि हृदय हनम पंचनाने।
चिकुर गरम जलधारा
मुख ससि डरे जनि रोअम अन्हारा।
कुच-जुग चारु चकेबा
निअ कुल मिलत आनि कोने देवा।
ते संकाएँ भुज-पासे
बांधि धयल उडि जायत अकासे।
तितल वसन तनु लागू
मुनिहुक विद्यापति गाबे
गुनमति धनि पुनमत जन पाबे।

(3)

कि आरे, नव यौवन अभिरामा !
जत दखल तत कहहि न पारिअ छलो, अनुपम एक ठामा !

हरिन इन्दु अरविन्द करनी हेम पिक बुझल अनुमानी !
नयन बयन परिमल गति तनुरुची ओ गति सुललित बानी !

कुचजुग उपर चिकुर फूजी पसरल ना अरुझाएल हारा !
जनि रे सुमेरु ऊपर मिली उगल चाँद विहीन सबे तारा !

लोल कपोल लुलित मणि – मुंडल अधर बिम्ब अध् जाई !
भजहु भमर नासापुट सुन्दर से देखि कीर लजाई !

भनहिं विद्यापति से वर नागर आन न पाबए कोई !
कंस दलन नारायण सुन्दर तसु रंगीनि पए होई !


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