मलूकदास (1574-1682 ई.)

मलूकदास (1574-1682 ई.) –मलूकदास जी का जन्म लाला सुंदरदास खत्री जी के घर में कड़ा जिला इलाहाबाद उ.प्र. में हुआ था | निर्गुण मत के नामी संतों में शुमार थे | मलूकदास जी के सम्बंध में बहुत से चमत्कार प्रसिद्ध हैं | इन्होने हिंदू और मुसलमान दोनों को उपदेस दिया है |

आलसियों के सम्बन्ध में इनका एक दोहा अति प्रसिद्ध है –

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम |
दास मलूका कहि गए , सबको दाता राम ||

इनके कुछ प्रसिद्ध पद निम्न है –

(1)

अब तो अजपा जपु मन मेरे |
सुर नर असुर टहलुआ जाके मुनि गंधर्व हैं जाके चेरे|.
दस औतार देखि मत भूलौ, ऐसे रूप घनेरे.||
अलख पुरुष के हाथ बिकने जब तैं नैननि हेरे| .
कह मलूक तू चेत अचेता काल न आवै नेरे .||
नाम हमारा खाक है, हम खाकी बंदे .|
खाकहि से पैदा किये अति गाफिल गंदे||

(2)

कबहूँ न करते बंदगी , दुनियाँ में भूले .|
आसमान को तकते ,घोड़े बहु फूले .||
सबहिन के हम सभी हमारे .जीव जन्तु मोंहे लगे पियारे.|
तीनों लोक हमारी माया .अन्त कतहुँ से कोई नहिं पाया.||
छत्तिस पवन हमारी जाति. हमहीं दिन औ हमहीं राति.|
हमहीं तरवर कित पतंगा. हमहीं दुर्गा हमहीं गंगा.||
हमहीं मुल्ला हमहीं काजी. तीरथ बरत हमारी बाजी.|
हहिं दसरथ हमहीं राम .हमरै क्रोध औ हमरे काम.||
हमहीं रावन हमहीं कंस.हमहीं मारा अपना बंस.||

(3)

तेरा, मैं दीदार-दीवाना।
घड़ी घड़ी तुझे देखा चाहूँ, सुन साहेबा रहमाना॥
हुआ अलमस्त खबर नहिं तनकी, पीया प्रेम-पियाला।
ठाढ़ होऊँ तो गिरगिर परता, तेरे रँग मतवाला॥
खड़ा रहूँ दरबार तुम्हारे, ज्यों घरका बंदाजादा।
नेकीकी कुलाह सिर दिये, गले पैरहन साजा॥
तौजी और निमाज न जानूँ, ना जानूँ धरि रोजा।
बाँग जिकर तबहीसे बिसरी, जबसे यह दिल खोज॥
कह मलूक अब कजा न करिहौं, दिलहीसों दिल लाया।
मक्का हज्ज हिये में देखा, पूरा मुरसिद पाया॥

(4)

हरि समान दाता कोउ नाहीं। सदा बिराजैं संतनमाहीं|
नाम बिसंभर बिस्व जिआवैं। साँझ बिहान रिजिक पहुँचावैं॥
देइ अनेकन मुखपर ऐने। औगुन करै सोगुन करि मानैं|
काहू भाँति अजार न देई। जाही को अपना कर लेई॥
घरी घरी देता दीदार। जन अपनेका खिजमतगार|
तीन लोक जाके औसाफ। जनका गुनह करै सब माफ॥
गरुवा ठाकुर है रघुराई। कहैं मूलक क्या करूँ बड़ाई|

(5)

गरब न कीजै बावरे, हरि गरब प्रहारी।
गरबहितें रावन गया, पाया दुख भारी॥
जरन खुदी रघुनाथके, मन नाहिं सुहाती।
जाके जिय अभिमान है, ताकि तोरत छाती॥
एक दया और दीनता, ले रहिये भाई।
चरन गहौ जाय साधके रीझै रघुराई॥
यही बड़ा उपदेस है, पर द्रोह न करिये।
कह मलूक हरि सुमिरिके, भौसागर तरिये॥


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