दादूदयाल [1544-1603 ई.]-

दादूदयाल संत कवि कबीर दास के अनुयायी माने जाते है | लेकिन इन्होने अपना एक अलग पंथ चलाया जो “दादूपंथ” के नाम से विख्यात हुआ |इनकी वाणियों पर कबीर की वाणी का प्रभाव है |इनके पंथ के लोग न ही तिलक लगाते है ,और न ही कंठी पहनते है ये लोग साथ में एक सुमिरनी रखते है और “सत्तराम” कह कर अभिवादन करते है |

इनकी रचना के अंश इस प्रकार है –

(1)
भाई रे! ऐसा पंथ हमारा
द्वै पख रहितपंथ गह पुरा अबरन एक अघारा
बाद बिबाद काहू सौं नाहीं मैं हूँ जग से न्यारा
समदृष्टि सूं भाई सहज में आपहिं आप बिचारा
मैं,तैं,मेरी यह गति नाहीं निरबैरी निरविकरा
काम कल्पना कदै न कीजै पूरन ब्रह्म पियारा
एहि पथि पहुंचि पार गहि दादू, सो तब सहज संभारा

(2)
घीव दूध में रमि रह्या व्यापक सब हीं ठौर
दादू बकता बहुत है मथि काढै ते और
यह मसीत यह देहरा सतगुरु दिया दिखाई
भीतर सेवा बन्दगी बाहिर कहे जाई
दादू देख दयाल को सकल रहा भरपूर
रोम-रोम में रमि रह्या तू जनि जाने दूर
केते पारखि पचि मुए कीमति कही न जाई
दादू सब हैरान हैं गूँगे का गुड़ खाई
जब मन लागे राम सों तब अनत काहे को जाई
दादू पाणी लूण ज्यों ऐसे रहे समाई

(3)
मेरे मन भैया राम कहौ रे॥टेक॥
रामनाम मोहि सहजि सुनावै।

उनहिं चरन मन कीन रहौ रे ॥१॥
रामनाम ले संत सुहावै।
कोई कहै सब सीस सहौ रे॥२॥

वाहीसों मन जोरे राखौ।
नीकै रासि लिये निबहौ रे॥३॥

कहत सुनत तेरौ कछू न जावे।
पाप निछेदन सोई लहौ रे॥४॥

दादू जन हरि-गुण गाओ।
कालहि जालहि फेरि दहौ रे॥५॥

(4)
तूँ हीं मेरे रसना तूँ हीं मेरे बैना।
तूँ हीं मेरे स्रवना तूँ हीं मेरे नैना॥टेक॥

तूँ हीं मेरे आतम कँवल मँझारी।
तूँ हीं मेरे मनसा तुम्ह परिवारी॥१॥

तूँ हीं मेरे मनहीं तूँ ही मेरे साँसा।
तूँ हीं मेरे सुरतैं प्राण निवासा॥२॥

तूँ हीं मेरे नख-सिख सकल सरीरा।
तूँ हीं मेरे जिय रे ज्यूँ जलनीरा॥३॥

तुम्ह बिन मेरे ओर कोइ नाहीं।
तूँ ही मेरी जीवनि दादू माँहीं॥४॥

(5)
पंडित राम मिलै सो कीजै।
पढ़ि-पढ़ि बेद पुराण बखाने,
सोई तत कहि दीजै॥टेक॥
आतम रोगी बिषय बियाधी,
सोइ करि औषध सारा।
परसत प्राणी होइ परम सुख,
छूटै सब संसारा॥१॥
ये गुण इंद्री अगिनि अपारा,
तासन जले सरीरा।
तन मन सीतल होइ सदा बतावौ,
जिहि पँथ पहुँचै पारा।
भूल न परै उलट नहिं आवै,
सो कुछ करहु बिचारा॥३॥
गुर उपदेस देहु कर दीपक,
तिमर मिटै सब सुझै।
दादू सोई पंडित ग्याता,
राम-मिलनकी बूझै॥४॥

दादू के दोहे-

मेरा बैरी ‘मैं मुवा, मुझे न मारै कोई।
मैं ही मुझकौं मारता, मैं मरजीवा होई॥

दादू इस संसार मैं, ये द्वै रतन अमोल।
इक साईं इक संतजन, इनका मोल न तोल॥
दादू दीया है भला, दिया करो सब कोय।
घर में धरा न पाइए, जो कर दिया न होय।

हिन्दू लागे देहुरा, मूसलमान मसीति।
हम लागे एक अलख सौं, सदा निरंतर प्रीति॥

तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर।
पल-पल का मैं गुनही तेरा, बकसहु ऑंगुण मोर॥

खुसी तुम्हारी त्यूँ करौ, हम तौ मानी हारि।
भावै बंदा बकसिये, भावै गहि करि मारि॥

सतगुर कीया फेरि करि, मन का औरै रूप।
दादू पंचौं पलटि करि, कैसे भये अनूप॥

बिरह जगावै दरद कौं, दरद जगावै जीव।
जीव जगावै सुरति कौं, तब पंच पुकारै पीव।

दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होई।
जब यहु आपा मरि गया, तब दूजा नहिं कोई॥
दादू हरि रस पीवताँ, कबँ अरुचि न होई।
पीवत प्यासा नित नवा, पीवण हारा सोई॥
सुन्य सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
दादू यह रस विलसिये, ऐसा अलख अभेव॥


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