राज्य के नीति निदेशक तत्व

राज्य के नीति निदेशक तत्वों का वर्णन भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 36 से 51 तक में किया गया है । भारतीय संविधान निर्माताओं ने इसे 1937 में निर्मित आयरलैंड के संविधान से ग्रहण किया है ।
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करना राज्य की इच्छा पर निर्भर करता है । इसके लिए कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है कि सरकार इसे लागू करने के लिए बाध्य हो । भारत हमेशा उदारवादी रहा है । भारतीय संविधान निर्माताओं ने लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हेतु “नीति निदेशक सिद्धांतों” को संविधान में वर्णित किया । भले ही इसे कानूनी अधिकार नहीं दिए गये हैं , अपितु इसमें एक आदर्श राज्य की स्थापना के सभी तत्व मौजूद हैं । “राज्य के नीति निदेशक तत्व” गांधी जी के रामराज्य पर आधारित है । गांधी जी ने भारत के विषय में जो सपना देखा था, उन सभी तत्वों को इसमें शामिल किया गया है । साथ ही साथ इसमें सामाजिक ,आर्थिक ,राजनीतिक लोकतंत्र की आधारशिला रखी गयी है । सामाजिक न्याय के सिद्धांत की व्यावहारिकता पर प्रकाश डाला गया है । इन सिद्धांतों का उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है न कि पुलिस राज की । ‘ राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों ‘ को यदि लागू कर दिया जाए तो वास्तव में लोकतंत्र की सुखद अनुभूति भारत की जनता को हो सकती है । वास्तव में यह सिद्धांत आने वाली सरकारों के लिए प्रेरणा स्रोत होगी । यदि कोई शासक उदारवादी दृष्टिकोण का निकला तो सचमुच भारत को उन्नति के उच्च शिखर पर ले जा सकता है ।

नीति निदेशक सिद्धांतों से संबंधित अनुच्छेद –

भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 36 से 51 तक नीति निदेशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है । जिसका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है –

अनुच्छेद 36 –

इस अनुच्छेद में राज्य की परिभाषा दी गयी है । भाग 4 में ‘ राज्य ‘ शब्द का वही अर्थ है जो मूल अधिकार से संबंधित भाग 3 में वर्णित है ।

अनुच्छेद 37 –

इस अनुच्छेद में इस बात का जिक्र है कि निदेशक तत्वों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता । निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं , और विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य है ।

अनुच्छेद 38 –

इस अनुच्छेद में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करना है । इसमें लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक न्याय द्वारा सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करना और आय ,प्रतिष्ठा ,सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का वर्णन है ।

अनुच्छेद 39 –

राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करे कि –
(क) सभी नागरिकों (स्त्री और पुरुष) को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो ।
(ख) सामूहिक हित के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों का समान रूप से वितरण हो ।
(ग) आर्थिक व्यवस्था के संदर्भ में धन और उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो ।
(घ) पुरुषों और स्त्रियों को समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था हो ।
(ङ) कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति के अनुसार रोजगार हो तथा बालकों को बलात श्रम से संरक्षण प्राप्त हो ।
(च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमा में वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाएं ।

अनुच्छेद 39 क –

राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि उसका विधि तंत्र इस प्रकार कार्य करेगा कि न्याय के समान अवसर उपलब्ध हो । राज्य द्वारा समान न्याय और गरीबों को नि:शुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करायी जाय ।

अनुच्छेद 40-

राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करें तथा उन्हें आवश्यक शक्तियां प्रदान करें । उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के योग्य बनाएं ।

अनुच्छेद 41-

राज्य अपनी आर्थिक शक्ति और विचार की सीमाओं के भीतर काम पाने के , शिक्षा पाने के और बेकारी ,बुढ़ापा ,बीमार और निरुशक्तातता की दशाओंं में लोक सहायता पाने के अधिकार को संरक्षित करेगा ।

अनुच्छेद 42-

राज्य , काम की न्याय संगत और मनोवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंध करेगा ।

अनुच्छेद 43 –

राज्य ,आर्थिक संगठन द्वारा या अन्य किसी भी प्रकार के कर्मकारों को काम , निर्वाह मजदूरी , शिष्ट जीवन स्तर तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा । राज्य कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन का कार्य करेगा ।

अनुच्छेद 43 क –

राज्य, किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों या अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मकारों के भाग लेने के लिए कदम उठायेगा ।

अनुच्छेद 43 ख

राज्य उद्योगों के प्रबंध में श्रमिकों का भाग लेना , सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन , संयुक्त संचालन , व्यवसायिक प्रबंधन को बढ़ावा देने का कार्य करेगा ।

अनुच्छेद 44 –

भारत के समस्त नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता ।

अनुच्छेद 45 –

6 वर्ष से 14 वर्ष तक के सभी छात्र -छात्राओं को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करना ।

अनुच्छेद 46-

अनुसूचित जाति और जनजाति तथा समाज के अन्य पिछड़े वर्गों के सामाजिक , शैक्षणिक एवं आर्थिक हितों को प्रोत्साहन देना । अन्याय एवं शोषण से सुरक्षा प्रदान करना ।

अनुच्छेद 47

स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक नशीली दवाओं ,मदिरा ,ड्रग के औषधीय प्रयोजन से भिन्न उपभोग पर प्रतिबंध ।

अनुच्छेद 48-

गाय ,बछड़ों तथा अन्य दुधारू पशुओं के नस्ल सुधार हेतु प्रोत्साहन देना तथा उनके वध पर रोक लगाना ।

अनुच्छेद 48 क –

पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन तथा वन एवं वन्यजीवों की सुरक्षा करना ।

अनुच्छेद 49 –

राष्ट्रीय महत्त्व वाले घोषित किए गए कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले संस्मारक या स्थान या वस्तु का संरक्षण करना ।

अनुच्छेद 50

राज्य की लोक सेवाओं में , न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करना ।

अनुच्छेद 51

अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को प्रोत्साहन देना । अंतर्राष्ट्रीय विधि और संधि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाना । अंतरराष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थ द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहन देना ।

निदेशक तत्वों का वर्गीकरण (प्रकृति)-


भारतीय संविधान में निदेशक तत्वों का वर्गीकरण नहीं किया गया है । परंतु इसकी प्रकृति को ध्यान में रखकर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है यथा – समाजवादी ,गांधीवादी ,उदार बुद्धिजीवी ।

(1) समाजवादी सिद्धांत

यह सिद्धांत लोकतांत्रिक समाजवादी विचारधारा को प्रोत्साहित करते हैं । इस सिद्धांत का लक्ष्य सामाजिक एवं आर्थिक न्याय प्रदान करते हुए लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है । इस विचारधारा को दर्शाने वाले , नीति निदेशक सिद्धांतों के संदर्भ में वर्णित , भारतीय संविधान में अनुच्छेद 38, 39 ,39 क , 41 ,42 ,43, 43 क और अनुच्छेद 47 में वर्णित है । अनुच्छेदों में समाजवादी सिद्धांतों का वर्णन किया गया है ।

(2) गांधीवादी सिद्धांत-

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका थी । इसी कारण इन्हें राष्ट्रपिता के नाम से जाना जाता है । गांधी जी ने जिस प्रकार के भारत का सपना देखा था, उस विचारधारा को नीति निदेशक सिद्धांतों के रूप में वर्णित किया गया है । गांधीजी गांव का विकास एवं कुटीर उद्योग के पक्षधर रहे । इस विचारधारा को दर्शाने वाले नीति निदेशक सिद्धांतों के संदर्भ में वर्णित भारतीय संविधान में अनुच्छेद 40 ,43,43-B , 46, 47 और अनुच्छेद 48 में वर्णित है ।

(3) उदारवादी बौद्धिक सिद्धांत-

इस श्रेणी में ऐसे सिद्धांतों को समाहित किया गया है, जो उदारवादी विचारधारा से प्रभावित है । उदारवादी विचारधारा के लोग सभी लोगों को एक साथ लेकर चलने की सोचते हैं । कट्टरपंथिता से भी दूर रहते हैं । जाति और धर्म से परे होकर अपनी विचारधारा को फैलाते हैं । इस विचारधारा को दर्शाने वाले नीति निदेशक सिद्धांतों के संदर्भ में वर्णित , भारतीय संविधान में अनुच्छेद 44, 45, 48, 48- A , 49 ,50 और अनुच्छेद 51 में वर्णित है ।

नीति निदेशक तत्वों का महत्व

नीति निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए न्यायालयीय अधिकार नहीं है । इसके बावजूद महत्व को नकारा नहीं जा सकता है । इनके अनुच्छेदों में वर्णित तथ्य वास्तव में लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को दर्शाता है । यह सिद्धांत समाजवादी , गांधीवादी एवं उदारवादी विचारधाराओंं को समेटे हुए हैं । गांधीजी ने भारत के लिए जो सपना देखा था , उन सभी तत्वों का समावेश किया गया है । यह तत्व लोगों के लिए प्रेरणास्रोत का कार्य करते हैं । राजनेताओं एवं कानून निर्माताओं को कानून बताते समय इनके सिद्धांतों पर विचार करना होता है, क्योंकि लोकतंत्र जनमत पर चलता है , उन्हें भी इस बात का डर बना रहता है कि इतने महान विचारों की अवहेलना करना कहीं भारी न पड़ जाय । इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर ने कहा था – “लोगों के लिए उत्तरदायी कोई भी मंत्रालय संविधान के भाग 4 में वर्णित उपबंधों की अवहेलना नहीं कर सकता ।”
इन तत्वों के महत्व के बारे में बताते हुए भारत के संविधान सभा के अध्यक्ष रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने कहा था – ” राज्य के नीति निदेशक तत्वों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाले सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है ।”
नीति निदेशक तत्वों ने ग्रामीण विकास , कृषि एवं पशुपालन, पर्यावरण , सहकारी समितियों के निर्माण ,अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा आदि अनेक विषयों पर जनता एवं विधि- वेत्ताओं का ध्यान आकर्षित करने का कार्य किया है । नीति निदेशक तत्वों पर प्रकाश डालते हुए महान कानूनविद् डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि ” लोकप्रिय मत पर कार्य करने वाली सरकार इसके लिए नीति बनाते समय निदेशक तत्वों की अवहेलना नहीं कर सकती । “

निदेशक तत्वों के विपक्ष में तर्क-

जहां राज्य के नीति निदेशक तत्वों का महत्व एवं उपयोगिता को विद्वानों द्वारा बताया गया है, वही निदेशक तत्वों के विपक्ष में तर्क भी विद्वानों ने दिये हैं । पहला तर्क है कि निदेशक तत्वों को लागू करने की कोई कानूनी शक्ति नहीं है । ज्यादातर भावात्मक बातों को महत्व दिया गया है । निदेशक तत्वों के विषय में टी.टी. कृष्णमाचारी ने इसे ” भावनाओं का एक स्थायी कूड़ा घर” कहा है । के. टी. शाह ने नीति निदेशक तत्वों को “अतिरेक कर्मकांडी” बताया है ।
नीति निदेशक तत्वों को व्यवस्थित एवं तार्किक ढंग से प्रस्तुत नहीं किया गया है । इस संदर्भ में एन. श्रीनिवास ने कहा है कि ” इन्हें न तो उचित तरीके से वर्गीकृत किया गया है और न ही तर्कसंगत तरीके से व्यवस्थित किया गया है । “


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