भारत में संवैधानिक  विकास ,स्रोत एवं आधारतत्व –

किसी भी देश का संविधान एक ऐसी बुनियादी व्यवस्था प्रदान करती है, जिसके माध्यम से वहां की जनता उत्तरोत्तर विकास के पथ पर अग्रसर हो तथा शासित होकर अपने कर्तव्यों द्वारा समाज के विकास में अपना योगदान दे सके।संविधान वह व्यवस्था है, जो अपने नागरिकों को समान रूप से विकास के अवसर प्रदान करती है। विधिक व्यवस्था के कारण ही तानाशाही का अंत एवं एक गुणवान एवं अत्यंत निर्धन व्यक्ति भी उच्च पद पर आसीन हो सकता है। संविधान की ताकत जनता एवं शासक वर्ग के हाथों में निहित रहती है।

भारत में संवैधानिक विकास का प्रारंभ ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1600 ई. से माना जा सकता है। ईस्ट इंडिया कंपनी अंग्रेज व्यापारियों का एक संगठित समूह था,जो भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से आई थी । ईस्ट इंडिया कंपनी को ब्रिटिश सरकार ने भारत के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। धीरे-धीरे अंग्रेजों का व्यापार बढ़ता गया तथा उन्होंने अपनी जड़े जमानी शुरू कर दी ।व्यापार की सुरक्षा के नाम पर सेना रखना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार अंग्रेजों की शक्ति में इतना इजाफा हो गया कि वह भारतीय रियासतों के  राजनीतिक एवं आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगे।भारतीय रियासतों के आंतरिक कला का अंग्रेजों ने भरपूर फायदा उठाया ।अंग्रेजों ने एक की मदद करके दूसरे को परास्त कर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में शत-प्रतिशत सफल रहे।ईस्ट इंडिया कंपनी जो भारत में व्यापार करने के लिए आई थी , धीरे-धीरे भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई। 1757 ई. की प्लासी की लड़ाई , 1764 ई. के बक्सर का युद्ध तथा 1765 ई. की इलाहाबाद (प्रयागराज )की संधि के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल ,बिहार और उड़ीसा में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।  अंग्रेजों की राजनीतिक ताकत को बढ़ते देख ब्रिटेन की सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि ईस्ट इंडिया कंपनी के क्रियाकलापों को नियंत्रित करने के लिए कानून की आवश्यकता है । इस प्रकार भारत में पहला अधिनियम रेगुलेटिंग एक्ट 1773 के रूप में आया । इसके बाद अनेक एक्ट समय-समय पर पारित किए गए , जिसका वर्णन आगे दिया जाएगा।

भारत में धीरे-धीरे अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो गया । भारत की सोई जनता को धीरे-धीरे यह आभास होने लगा कि अंग्रेजों से सत्ता हासिल करनी होगी।  सन 1857 ई. में स्वतंत्रता के लिए पहली लड़ाई हुई,  परंतु भारतीय स्वतंत्रता प्राप्त करने में असफल हो गए । भारतीयों ने स्वतंत्रता के लिए लंबी लड़ाई लड़ी, अंततोगत्वा भारतीयों को सफलता मिली तथा अंग्रेज भारत छोड़कर जाने को तैयार हो गये । अंग्रेजों की कूटनीतिक सफलता के कारण भारत देश दो भागों में बँट गया, भारत और पाकिस्तान । 15 अगस्त सन 1947 को भारत आधिकारिक रूप से स्वतंत्र हो गया । अब भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपना एक स्वतंत्र रूप से संविधान निर्मित करना था । भारतीय संविधान सभा द्वारा 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में 26 नवंबर 1949 को पूर्ण रूप से बनकर तैयार हो गया। भारत गणराज्य का नया संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ, जो आज तक चल रहा है।

भारत का संविधान निर्मित करने के लिए पूर्व में ब्रिटिश संसद द्वारा समय-समय पर अनेक अधिनियम/चार्टर पारित किए गए थे, जिसे भारत में संविधान का शुरुआत कहा जा सकता है । इसे भारतीय संविधान का आधार भी कहा जा सकता है  । जिससे भारत में संवैधानिक विकास , स्त्रोत एवं आधार तत्व की जानकारी प्राप्त हो सके। इसे दो रूपों में भी देखा जा सकता है।

  1. कंपनी का शासन 1773 से 1858 तक
  2. सम्राट का शासन 1858 से 1947 तक

जिसका विवरण निम्नलिखित है-

         1773 का रेगुलेटिंग एक्ट-

इस अधिनियम का अत्यधिक संवैधानिक महत्व था । ब्रिटिश सरकार द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियंत्रित करने की दिशा में पहला प्रयास था । इस अधिनियम द्वारा बंगाल के शासन को चलाने के लिए एक गवर्नर जनरल तथा चार सदस्यीय  परिषद में निहित किया गया । प्रथम गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड वॉरेन हेस्टिंग्स तथा परिषद के सदस्य के रूप में क्रमशः क्लैवरिंग , मॉनसन , बरबेल तथा फ्रांसिस को नियुक्त किया गया । इनका कार्यकाल 5 वर्ष का था , तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा इन्हें हटाया जा सकता था । इसके द्वारा भारत में केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी गयी ।

           इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न प्रकार थी :

  1. इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को ‘ बंगाल का गवर्नर जनरल ’ के नाम से नया पद दिया गया । उसकी सहायता के लिए चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन किया गया । प्रथम गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स थे ।
  2. मुंबई तथा मद्रास के प्रेसिडेंसियों को बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया । पहले सभी गवर्नर एक दूसरे से अलग थे । इस प्रकार वॉरेन हेस्टिंग्स को बंगाल का प्रथम गवर्नर जनरल कहा जाता है।
  3. परिषद सहित गवर्नर जनरल को भारतीय प्रशासन के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया, परंतु कानून को लागू करने से पहले निदेशक बोर्ड की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था ।
  4. इस अधिनियम के तहत सन 1774 ई. में कोलकाता (बंगाल) में एक उच्चतम न्यायालय( सुप्रीम कोर्ट ) की स्थापना की गयी । इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे इस उच्चतम न्यायालय का प्रथम मुख्य न्यायाधीश के रूप में सर एलिजा इंपे को नियुक्त किया गया । इस न्यायालय को दीवानी, फौजदारी, जल सेना ,धार्मिक मामले आदि विषयों के मामले में सुनवाई का विस्तृत अधिकार प्राप्त था । इस न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट होने पर निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड में स्थित प्रीवी  काउंसिल में अपील की जा सकती थी ।
  5. इस अधिनियम के तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने तथा भारतीयों से रिश्वत व उपहार लेना प्रतिबंधित कर दिया गया ।

इस प्रकार 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट के द्वारा कंपनी पर नियंत्रण सशक्त हो गया । कंपनी के शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान भारत आया । इस अधिनियम के परिणामस्वरूप राजस्व ,नागरिक आदि मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया गया।

           1781 का संशोधित अधिनियम  :-

1773की  रेगुलेटिंग की कमियों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद ने 1781 का संशोधन अधिनियम पारित किया । इसे बंदोबस्त कानून के नाम से भी जाना जाता है । इस अधिनियम से कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी कानून बनाने का अधिकार मिल गया ।

इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न प्रकार थी :

  1. इस कानून द्वारा कंपनी के कर्मचारियों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार से मुक्त कर दिया गया, अर्थात सर्वोच्च न्यायालय कंपनी के कर्मचारियों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकता ।
  2. इस कानून द्वारा कलकत्ता के सभी निवासियों को सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत किया गया । कानून बनाने और उसका क्रियान्वयन करते समय भारत में रह रहे हिंदू ,मुसलमान और अन्य के सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाजों का भी ध्यान रखा जाय ।
  3. इस कानून द्वारा राजस्व संबंधी मामले एवं वसूली से जुड़े मामले को भी सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार से मुक्त कर दिया गया।
  4. इस कानून द्वारा उल्लिखित किया गया कि प्रांतीय न्यायालयों की अपील गवर्नर जनरल- इन -काउंसिल के यहां दाखिल हो । सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल न हो ।
  5. इस कानून द्वारा गवर्नर जनरल -इन -काउंसिल को प्रांतीय न्यायालयों एवं काउंसिल के लिए अधिनियम बनाने के लिए नियुक्त किया ।

          पिट्स इंडिया अधिनियम 1784   :–

भारत में कंपनी की गिरती साख को बचाने के उद्देश्य से इस अधिनियम को अस्तित्व में लाया गया ।

  इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न प्रकार थे :

  1. कंपनी के भारतीय अधिकृत प्रदेशों को पहली बार ’ ब्रिटिश अधिकृत प्रदेश ‘ कहा गया ।
  2. इस अधिनियम से कंपनी के राजनीतिक और वाणिज्यिक कार्यों को अलग -अलग कर दिया ।
  3. कंपनी के कर्मचारियों को उपहार लेने पर पूर्ण रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया ।
  4. भारत में नियुक्त किये गये अंग्रेज अधिकारियों के मामलों में सुनवाई के लिए इंग्लैंड में कोर्ट की स्थापना की गई।
  5. इंग्लैंड में 6 आयुक्तों के एक ’ नियंत्रण बोर्ड ‘ के नाम से नए निकाय का गठन किया गया । यह बोर्ड राजनीतिक मामलों के प्रबंधन का कार्य करती थी । इस तरह द्वैध शासन की व्यवस्था की शुरुआत की गयी ।

1786 का अधिनियम :  —

1786 ई.  में लार्ड कार्नवालिस को बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया।

       इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थी :

  1. इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल को विशेष मामलों में काउंसिल के निर्णयों को न मानने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार प्रदान किया गया ।
  2. इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल को सेनापति की मुख्य शक्तियां प्राप्त हो गयी |

 

       1793 का चार्टर कानून-[ 1793 का राजपत्र] :–

कंपनी के कार्यों के सुधार के लिए इस चार्टर को पारित किया गया।

       इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थी  : –

  1. भारत में कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को अगले 20 वर्षों की अवधि के लिए बढ़ा दिया ।
  2. गवर्नर जनरल एवं उसके परिषदों की योग्यता के लिए कम से कम 12 वर्षों तक भारत में रहने के अनुभव को अनिवार्य कर दिया ।
  3. नियंत्रण मंडल के सदस्यों का वेतन और भत्ते आदि भारतीय कोष से देने का निर्णय किया गया।
  4. व्यक्तिगत मौखिक नियमों के आधार पर भारत में लिखित अधिनियमों द्वारा प्रशासन की नींव रखी गयी । नियमों की व्याख्या न्यायालय द्वारा किया जाना निर्धारित किया गया ।

       1813 का चार्टर कानून [ 1813 का राजपत्र ]  : –

1813 का चार्टर अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया।

       इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थीं : –

  1. इस अधिनियम ने भारत में कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया । इसके कारण सभी ब्रिटिश व्यापारी भारत में व्यापार कर सकते थे । इसके अतिरिक्त खास बात यह थी कि कंपनी का चीन से व्यापार तथा चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा ।
  2. इस कानून के द्वारा इसाई मिशनरियों को भारत में आकर धर्म प्रचार करने एवं लोगों को शिक्षित करने की अनुमति प्रदान की गयी ।
  3. भारतीयों को शिक्षित करने के लिए ₹100000 खर्च करने का सरकार को निर्देशित किया गया।
  4. कर लगाने की व्यवस्था की गयी । कर अदा न करने पर दंड की भी व्यवस्था की गयी ।
  5. इस कानून द्वारा कंपनी शासित क्षेत्रों पर ब्रिटेन के राजा की महत्ता एवं प्रभुता को स्थापित किया ।
  6. नियंत्रण बोर्ड की शक्ति को परिभाषित किया गया ।

 

1833 का चार्टर अधिनियम [ 1833 का राजपत्र ]  :  –

1813 के अधिनियम के बाद भारत में कंपनी के अधिकार क्षेत्र में वृद्धि हुई । अंग्रेजों ने महाराष्ट्र ,पंजाब ,सिंध ,इंदौर, ग्वालियर आदि क्षेत्रों में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । इसी प्रभुत्व को अधिक मजबूती प्रदान करने के लिए 1833 का चार्टर अधिनियम पारित किया गया।

             इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न  थीं  : –

  1. इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को संपूर्ण भारत का गवर्नर जनरल घोषित कर दिया गया । जिसमें सभी नागरिक एवं सैन्य शक्तियां निहित थी । इस अधिनियम के द्वारा पहली बार एक ऐसी सरकार बनाई गयी , जिसका ब्रिटिश कब्जे वाले संपूर्ण भारत पर पूर्णरूपेण नियंत्रण था । इस प्रकार भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक थे ।
  2. ईस्ट इंडिया कंपनी के चाय एवं चीन के साथ व्यापारिक एकाधिकार को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया गया । अब इसे पूर्ण रूप से राजनीतिक एवं प्रशासनिक संस्था बना दिया गया ।
  3. भारत में दास प्रथा को गैर -कानूनी घोषित कर दिया गया । 1843 ई. में पूर्ण रूप से दास- प्रथा की समाप्ति की घोषणा हुई ।
  4. इस अधिनियम द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि रंग ,वंश ,धर्म या जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी पद के योग्य होने पर उसे वंचित नहीं किया जायेगा ।
  5. इस अधिनियम द्वारा भारत में केंद्रीकरण का आरंभ हुआ । विधियों को संहिताबद्घ करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया । इस आयोग के प्रथम अध्यक्ष के रूप में लॉर्ड मैकाले को नियुक्त किया गया ।
  6. इस अधिनियम द्वारा मद्रास एवं बंबई के गवर्नरों को विधायिका संबंधी शक्ति से वंचित कर दिया गया । भारत के गवर्नर जनरल को ही संपूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया ।
  7. चार्टर एक्ट 1833 के द्वारा सिविल सेवकों के चयन के लिए प्रतियोगिता के आयोजन का प्रयास किया गया , परंतु बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया ।

 

1853 का चार्टर अधिनियम [ 1853 का राजपत्र ]  : –

ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए विभिन्न चार्टर अधिनियम की श्रृंखला में 1853 का चार्टर अधिनियम अंतिम अधिनियम था । यह अधिनियम मुख्य रूप से भारतीयों की तरफ से कंपनी के शासन की समाप्ति की मांग की गयी । जो तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की रिपोर्ट पर आधारित थी ।

इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थीं   : –

  1. इस अधिनियम द्वारा कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए सिविल सेवकों की भर्ती के चयन हेतु खुली प्रतियोगिता का आरंभ किया गया । भारतीय सिविल सेवा के संबंध में 1854 ई. में मैकाले समिति की नियुक्ति की गयी ।
  2. इस अधिनियम द्वारा पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के वि धायी एवं प्रशासनिक कार्यों को पृथक करने की व्यवस्था की गयी ।
  3. निदेशक मंडल के सदस्यों की संख्या घटाकर 24 से 18 कर दिया गया ।
  4. बंगाल के लिए अलग से गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था करने का प्रावधान किया गया ।
  5. इस अधिनियम द्वारा यह व्यवस्था दी गयी कि ब्रिटिश संसद किसी भी समय कंपनी का शासन समाप्त कर सकता था ।

 

1858 का भारतीय सरकार अधिनियम  : –

1857 की क्रांति जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है । इस क्रांति से कंपनी शासन की असंतोषजनक नीतियां उजागर हो गयी, जिसका फायदा उठाकर ब्रिटिश संसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर दिया।इसके बाद भारत का शासन सीधे ब्रिटिश राजशाही को हस्तांतरित हो गया ।

इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थीं –

  1. इस अधिनियम के तहत अब भारत का शासन सीधे ब्रिटिश सम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया के अधीन हो गया । भारत में गवर्नर जनरल के पद नाम को बदलकर ‘ वायसराय ’ कर दिया गया । वायसराय ब्रिटिश ताज के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने लगे ।  भारत का प्रथम वायसराय लॉर्ड कैनिंग को बनाया गया ।
  2. ‘ भारत सचिव ’ के नाम से एक नए पद का सृजन किया गया । भारत सचिव को भारतीय प्रशासन पर संपूर्ण नियंत्रण की शक्ति निहित थी । भारत सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सचिव था , जो ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था । वायसराय को भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार ही कार्य करने के लिए अनिवार्य किया गया ।
  3. भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद का गठन किया गया । परिषद का अध्यक्ष भारत सचिव को बनाया गया ।
  4. नियंत्रण बोर्ड और निदेशक कोर्ट को समाप्त कर दिया गया । इस प्रकार भारत में द्वैध प्रणाली को समाप्त कर दिया गया ।

1 नवंबर 1858 को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भारत के लिए नीतिगत घोषणा की । उन्होंने कहा कि भारत प्रजा को ब्रिटिश प्रजा के समान मानने ,  सभी लोगों के उन्नति के प्रयास करने तथा लोक सेवाओं में योग्यता के आधार पर बिना भेदभाव की यह निष्पक्ष भर्ती की जाएगी ।

 

1861 का भारतीय परिषद अधिनियम-

18 57 की क्रांति में ब्रिटिश सरकार को यह संदेश दिया गया है कि भारत में शासन सत्ता चलाना है तो वैधानिक रूप से भारतीयों का सहयोग लेना आवश्यक है । यह अधिनियम भारतीयों के लिए महत्वपूर्ण एवं युगांत कारी घटना के रूप में संदर्भित है ।

 इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थीं-

  1. इस अधिनियम द्वारा विधान परिषद की संख्या में वृद्धि की गयी । वायसराय को परिषद में गैर सरकारी सदस्यों के रूप में मनोनीत करने का अधिकार दिया गया । उसी क्रम में 1862 में लॉर्ड कैनिंग ने बनारस के राजा ,पटियाला के राजा तथा सर दिनक र राव को मनोनीत किया ।
  2. 1862 में बंगाल तथा 1866 में उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत और 1857 में पंजाब में  विधान परिषदों का गठन हुआ ।
  3. आपातकाल की स्थिति में वायसराय को यह अधिकार था कि बिना काउंसलिंग की संस्तुति के भी अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गई जिसकी अवधि 6 माह होती थी ।
  4. इस अधिनियम के द्वारा वायसराय को प्रेसिडेंसियों तथा प्रांतों की सीमाओं की उद्घोषणा एवं उसमें परिवर्तन करने का अधिकार प्रदान किया गया । इस प्रकार पुनः विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत की गई।

 

शाही उपाधि अधिनियम 1876  : –

इस अधिनियम के तहत 28 अप्रैल 18 76 को ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया को भारत का सम्राज्ञी घोषित किया गया ।

 

भारतीय परिषद अधिनियम  1892  : –

सर जॉर्ज चिजनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गयी ।  उस कमेटी ने जो सुझाव दिए उसे 1892  के अधिनियम में सम्मिलित किया गया ।

इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थीं-

  1. किस अधिनियम द्वारा केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों के अतिरिक्त (गैर सरकारी )सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी । इसके बावजूद बहुमत सरकारी सदस्यों का ही रहता था । भारत के प्रमुख सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व स्थापित किया गया ।
  2. इस अधिनियम द्वारा विधान परिषदों के कार्यों में वृद्धि कर दी गयी । बजट का ब्यौरा परिषदों में देना आवश्यक हो गया । सदस्यों को यह अधिकार दिया गया कि वह कार्यपालिका के कार्यों के बारे में प्रश्न पूछ सकें । इसके बावजूद एक कमी यह थी कि सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे ।
  3. इस अधिनियम में मुख्य बात यह थी कि इसमें केंद्रीय विधान परिषद और बंगाल चेंबर ऑफ कॉमर्स में वायसराय को गैर सरकारी सदस्यों के नामांकन के लिए शक्तियों का उल्लेख था।

इन सबके बावजूद अधिनियम में अनेक कमियां थी , जिसकी भारतीयों द्वारा बार-बार आलोचना की जाती थी।

 

भारत परिषद अधिनियम 1909[ मार्ले मिंटो सुधार]-

जिस समय यह अधिनियम आया उस समय लॉर्ड मॉर्ले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव थे तथा लॉर्ड मिंटो भारत के वायसराय थे । दोनों ही इस बात से सहमत थे कि सुधारों की आवश्यकता है ।  अतः भारत परिषद अधिनियम 1909 प्रकाश में आया ।  इस अधिनियम को “ मार्ले मिंटो सुधार ” के नाम से भी जाना जाता है ।

इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे-

  1. इस अधिनियम के तहत केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों की संख्या में वृद्धि की गयी । केंद्रीय परिषद में जहां 16 संख्या थी उसको 60 कर दिया गया । प्रांतीय विधान परिषदों की संख्या अलग-अलग थी ।
  2. इस अधिनियम द्वारा पहली बार पृथक निर्वाचन व्यवस्था का प्रारंभ किया गया । इस अधिनियम में यह व्यवस्था दी गई कि मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकता था । इस प्रकार साम्प्रदायिक व्यवस्था का प्रावधान किया गया । इस कारण लॉर्ड मिंटो को साम्प्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में याद किया गया ।
  3. विधायिका के कार्य क्षेत्र का दायरा बढ़ाया गया । अनुपूरक प्रश्न पूछने , जनहित के प्रश्न पूछने आदि अधिकार दिए गये ।
  4. सशस्त्र सेना विदेश संबंध और देसी रियासतों से संबंधित विषय विधायिका के क्षेत्र से बाहर रखा गया ।
  5. इस अधिनियम के तहत प्रथम बार किसी भारतीय को गवर्नर जनरल और वायसराय की कार्यकारिणी में नियुक्त करने की व्यवस्था की गयी । वायसराय की कार्यकारिणी में प्रथम भारतीय सदस्य के रूप में सत्येंद्र सिन्हा का चयन किया गया । इन्हें विधि सदस्य बनाया गया था ।
  6. इस अधिनियम द्वारा प्रेसिडेंसी कारपोरेशन जमीदारों आदि के लिए अलग-अलग प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गयी ।

भारत शासन अधिनियम 1919 : –

20 अगस्त 1917 को ब्रिटिश सरकार ने पहली बार एक ऐतिहासिक वक्तव्य दिया जिसका सार तत्व इस प्रकार था   –

“शासन की सभी शाखाओं में भारतीयों को शामिल करना और स्वायत्तशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास जिससे ब्रिटिश भारत के अभिन्न अंग के रूप में उत्तरदाई सरकार  की उत्तरोत्तर उन्नति हो सके।”

इस घोषणा को कार्य रूप देने के लिए” मोंटफोर्ड रिपोर्ट 1918″ प्रकाशित की गयी । यही रिपोर्ट 1919 के अधिनियम का आधार स्तंभ बना ।  उस समय मांटेग्यू भारत के राज्य सचिव थे तथा चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय थे ।  इस कारण इस कानून को मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के नाम से भी जाना जाता है ।

         इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थीं  : –

  1. इस अधिनियम के अनुसार वायसराय की कार्यकारी परिषद के 6 सदस्यों में से (कमांडर इन चीफ के पद को छोड़कर) तीन सदस्यों का भारतीय होना अनिवार्य था ।
  2. इस कानून के तहत सांप्रदायिक आधार पर भारतीय ईसाईयों , सिखो , आंग्ल भारतीयों और यूरोपियों के लिए भी पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था की गई।
  3. केंद्रीय एवं प्रांतीय विषयों की सूची जारी की गई केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों को अपनी-अपनी सूचियों के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया । इस प्रकार द्वैध शासन की नई पद्धति शुरू की गयी । प्रांतीय विषयों की सूची को पुनः दो भागों में बांटा गया – हस्तांतरित विषय और आरक्षित विषय । हस्तांतरित विषय पर गवर्नर का शासन होता था , दूसरी ओर आरक्षित विषयों पर गवर्नर कार्यपालिका परिषद की सहायता से शासन करता था ।
  4. इस अधिनियम द्वारा पहली बार भारत में द्विसदनीय व्यवस्था तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था की शुरुआत हुई । इसमें भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्विसदनीय व्यवस्था अर्थात लोकसभा तथा राज्यसभा का गठन किया गया ।
  5. 1926 ई. में सिविल सेवकों भर्ती हेतु केंद्रीय लोकसेवा आयोग का गठन किया गया ।

 

साइमन आयोग (कमीशन) 1927   : –

ब्रिटिश सरकार ने नवंबर 1927 में सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया । इस आयोग में एक भी सदस्य भारतीय नहीं था । इस आयोग का मुख्य उद्देश्य नए संविधान में भारत की वास्तविक स्थिति का पता लगाना था । भारत आते ही साइमन कमीशन का विरोध शुरू हो गया । “ साइमन कमीशन वापस जाओ ” के नारे लगने लगे । सभी दलों ने साइमन कमीशन का विरोध किया । साइमन कमीशन की रिपोर्ट जून 1930 में प्रकाशित हुई । इस रिपोर्ट में द्वैध शासन प्रणाली सरकारों का विस्तार साम्प्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था आदि को जारी रखने की सिफारिशें की थी ।  साइमन कमीशन की मांग को कांग्रेस ने ठुकरा दिया तथा 1929 के लाहौर अधिवेशन में ‘ पूर्ण स्वराज ‘ का प्रस्ताव पारित किया गया ।

 

नेहरू रिपोर्ट   : –

28 फरवरी 1928 ई.  को दिल्ली में सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन किया गया । संविधान का प्रारूप निर्माण के लिए पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय कमेटी बनाई गयी ।  नेहरू रिपोर्ट को लखनऊ सम्मेलन में स्वीकार की गयी ।  जिसे  “ नेहरू रिपोर्ट ” के नाम से जाना जाता है । दिसंबर 1928 ई.  में कलकत्ता में सर्वदलीय सम्मेलन किया गया,  जिसमें इस रिपोर्ट पर आपत्ति उठाई गयी ।  इसमें सभी समुदायों के सभी निर्वाचन समूह का प्रस्ताव था ।  इस प्रस्ताव का सबसे अधिक खिलाफत मोहम्मद अली जिन्ना ने की थी ।

 

गोलमेज सम्मेलन 1930 से 1932    : –

साइमन कमीशन की रिपोर्ट जून 1930 में प्रकाशित हुई  । प्रकाशन के पूर्व ही लॉर्ड इर्विन ने घोषणा की थी कि साइमन रिपोर्ट को गोलमेज में सम्मेलन में विचारार्थ रखा जायेगा । पहला गोलमेज सम्मेलन 12 नवंबर 1930 को हुआ ।  इस सम्मेलन में देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा व्यापारिक नेताओं ने भी भाग नहीं लिया । जिसका प्रमुख कारण रहा कि अधिकांश नेता सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण जेल में बंद थे । इस कारण प्रथम गोलमेज सम्मेलन निरर्थक साबित हुई  ।

जनवरी 1931ई.  में गांधी जी को जेल से रिहा कर दिया गया । दूसरा गोलमेज सम्मेलन दिसंबर 1921 ई. को लंदन में आयोजित किया गया । इस सम्मेलन में कांग्रेस की तरफ से महात्मा गांधी ने भाग लिया । सरोजिनी नायडू और पंडित मदन मोहन मालवीय ने ब्रिटिश सरकार के मनोनीत सदस्य के रूप में भाग लिया । इनके अतिरिक्त मोहम्मद इकबाल , घनश्याम दास बिरला , एस.के. दत्ता, सैयद अली इमाम आदि ने भाग लिया । गांधी जी ने अछूतों को अल्पसंख्यक का दर्जा न देने की वकालत की । गांधीजी का मंतव्य था की दलित हिंदू धर्म के ही अंग है । दलित नेता अंबेडकर आदि अछूतों के लिए अलग से प्रावधान के पक्ष में थे । इस प्रकार “ पूना समझौते ” का आविर्भाव हुआ । जिसके द्वारा हिंदुओं में विभिन्न वर्ग समूहों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया । इन प्रावधानों का भी विरोध किया गया।

तीसरा तथा अंतिम गोलमेज सम्मेलन नवंबर 1932 में लंदन में हुआ । तीनों गोलमेज सम्मेलनों की सिफारिशों को आधार बनाकर ब्रिटिश सरकार ने श्वेत पत्र जारी किया । लार्ड लिनोलिथो की अध्यक्षता में संयुक्त संसदीय समिति नियुक्ति की गई । इस समिति द्वारा कुछ संशोधन कर 1935 का भारत शासन अधिनियम 1935 बनाया गया ।

 

सांप्रदायिक अवॉर्ड   :  –

अल्पसंख्यकों को रिझाने हेतु ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैजमे मैकडोनाल्ड ने अगस्त 1932 ई. में एक योजना की घोषणा की । इसमें मुस्लिम , सिख , इसाई तथा दलितों के लिए भी अलग निर्वाचन की व्यवस्था थी  । इसे कम्युनल अवॉर्ड अर्थात सांप्रदायिक अवॉर्ड के नाम से जाना गया ।  दलितों के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था से गांधी बहुत दुखी हुए । गांधी जी ने पुणे की यरवदा जेल में अनशन आरंभ कर दिया । गांधीजी तथा कांग्रेस नेताओं और बी आर अंबेडकर व दलित नेताओं के बीच एक समझौता हुआ कि हिंदू निर्वाचन व्यवस्था से दलितों को अलग न किया जाय । बल्कि दलितों के लिए स्थान आरक्षित किया जाय ।  इस तरह दलितों के लिए भी स्थान आरक्षित किया गया जिसे “ पूना पैक्ट ” या “ पूना समझौता ” के नाम से जाना गया ।

 

भारत शासन अधिनियम 1935  : –

यह अधिनियम भारतीय संविधान के लिए एक विस्तृत दस्तावेज के रूप में उपादेय है। 1935 के अधिनियम में 231 अनुच्छेद (धाराएं ) तथा 10 अनुसूचियां थी।यह अधिनियम एक सशक्त एवं महत्वपूर्ण अधिनियम साबित हुआ ।

इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं निम्न थीं   : –

  1. केंद्र और इकाइयों के बीच विभिन्न विषयों की तीन सूचियां बनाकर बंटवारा किया गया । तीनों सूचियां इस प्रकार थी।

(i) संघीय सूची ( 59 विषय)

(ii) राज्य सूची (54 विषय)

(iii) समवर्ती सूची (दोनों के लिए 36 विषय)

  1. इस अधिनियम द्वारा प्रांतीय विधायिका को प्रांतीय एवं समवर्ती सूची पर कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गयी ।
  2. वर्मा को भारत से अलग कर दिया गया । सिंध और उड़ीसा नाम के दो नए प्रांत बना दिए गये ।
  3. इस कानून द्वारा संघीय बैंक तथा 1937 में संघीय न्यायालय की स्थापना की गयी ।
  4. इस अधिनियम द्वारा संघीय एवं प्रांतीय लोक सेवा आयोग की स्थापना की गयी ।
  5. इस अधिनियम द्वारा अखिल भारतीय संघ की स्थापना की गयी , परंतु इसमें मुख्य बात यह थी कि देसी रियासतों ने शामिल होने से मना कर दिया।
  6. महिलाओं , मजदूर वर्ग एवं दलित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था का विस्तार किया।

 

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947   : –

ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 20 फरवरी 1947 को घोषणा करते हुए कहा कि 30 जून 1947 को भारत से ब्रिटिश शासन को खत्म कर दिया जायेगा ।  इसके बाद सत्ता भारतीयों को सौंप दी जायेगी ।  इसके लिए मुस्लिम लीग राजी नहीं हुआ । मुस्लिम लीग ने भारत विभाजन का प्रस्ताव रखा । 3 जून 1947 को भारत के वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने विभाजन की योजना पेश की । जिसमें भारत और पाकिस्तान नाम से 2 देशों के रूप में भारत का विभाजन हुआ , जिसे माउंटबेटन योजना कहा गया । अंततोगत्वा कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने इसे स्वीकार किया । 14 एवं 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को भारत में ब्रिटिश शासन का अंत हो गया । लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने । उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई । इस तरह भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 बनाकर लागू किया गया ।

     इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्न थी   :–

  1. इस अधिनियम के तहत 15 अगस्त 1947 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया ।
  2. भारत का विभाजन कर दो स्वतंत्र राष्ट्र भारत तथा पाकिस्तान के नाम से बना दिए गये ।
  3. इस अधिनियम द्वारा दोनों राष्ट्रों को अपना अलग- अलग संविधान बनाने का पूर्ण रूप से अधिकार दे दिया गया ।
  4. इस अधिनियम द्वारा शाही उपाधि से “ भारत का सम्राट ” शब्द समाप्त कर दिया गया ।
  5. इस अधिनियम द्वारा ब्रिटेन में भारत सचिव का पद समाप्त कर दिया गया ।
  6. इस अधिनियम द्वारा भारतीय रियासतों को यह स्वतंत्रता दे दी गयी कि वह चाहे तो भारत या पाकिस्तान में विलय हो सकती हैं अथवा स्वतंत्र भी रह सकती हैं ।

 

अंतरिम सरकार 1946 व उनके विभाग   :  —

भारत की अंतरिम सरकार का गठन 2 सितंबर 1946 को संविधान सभा द्वारा किया गया । अंतरिम सरकार 15 अगस्त 1947 तक रही । अंतरिम सरकार की अध्यक्षता वायसराय द्वारा की जाती थी । जवाहरलाल नेहरू को परिषद का उपाध्यक्ष बनाया गया । ब्रिटिस भारत में यह पहला अवसर था कि सरकार भारतीयों के हाथों में थी ।

        अंतरिम सरकार 1946 का प्रारूप   : –

सदस्य विभाग
1.    जवाहरलाल नेहरू परिषद के उपाध्यक्ष , राष्ट्रमंडल सम्बंध , विदेश मामले
2.    सरदार वल्लभभाई पटेल गृह , सूचना एवं प्रसारण
3.    जगजीवन राम श्रम
4.    सरदार बलदेव सिंह रक्षा
5.    लियाकत अली खाँ वित्त
6.    सी.एच. भाभा कार्य , खान , एवं उर्जा
7.    आसफ अली रेलवे एवं परिवहन
8.    डॉ. राजेन्द्र प्रसाद खाद्य एवं कृषि
9.    जॉन मथाई उद्योग एवं नागरिक आपूर्ति
10.  सी. राजगोपालाचारी शिक्षा एवं कला
11.  गजनफर अली खान स्वास्थ्य
12.  अब्दु-रव-निश्तार डाक एवं वायु
13.  आई. आई. चुंदरीगर वाणिज्य
14.  जोगेंद्रनाथ मंडल विधि

 

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स्वतंत्र भारत का प्रथम मंत्रिमंडल –1947  का प्रारुप

सदस्य विभग
1.       पं. जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री ,राष्ट्रमंडल तथा विदेश मामले , वैज्ञानिक शोध
2.       सरदार वल्लभ भाई पटेल गृह , सुचना एवं प्रसारण , राज्यों के मामले
3.       डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विधि
4.       डॉ. राजेंद्र प्रसाद खाद्य एवं कृषि
5.       मौलाना अबुल कलाम आजाद शिक्षा
6.       जगजीवन राम श्रम
7.       राजकुमारी अमृता कौर स्वास्थ्य
8.       डॉ जॉन मथाई रेलवे एवं परिवहन
9.       आर. के षणमुगल शेट्टी वित्त
10.   डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उद्योग एवं आपूर्ति
11.   सी. एच. भाभा वाणिज्य
12.   रफी अहमद किदवई संचार
13.   नरहर विष्णु गाडगिल कार्य , खान एवं उर्जा

 


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