सो गया साहित्य तो कवि क्या कहे,
खो गयी यदि कलम तो कैसे सहे ?
रो रही है लेखनी, कागज भरा है आंसुओं से ,
दुख रहे हैं नेत्र उसके पश्चिमी तम के धुओं से !
अजिर वंशज भानु के, पथ मांगते हैं उड्गनों से ,
चाह है नव-पल्लवों की तमस-युत ऊसर वनों से !
बढ़ रहे पग किन्तु, लगता आँख से है लक्ष्य ओझल,
घोर घन जब राह रोके तो बता रवि क्या कहे ?
सो गया साहित्य तो कवि क्या कहे,
खो गयी यदि कलम तो कैसे सहे ?
यूं अमावस कर रहे विचरण कहाँ दुर्दांत पथ पर ,
आत्मविस्मृत क्यों हुए, जागो तनिक ही यत्न लेकर,
नभ, जलाशय,अग्नि,वन,हिमशैल के संदेश सुंदर,
चिर पुरातन मूल्य, जिनका था सकल संसार अनुचर,
तीव्र ज्वाला ले हृदय जागो, पुरातन गौरवों की,
श्रेष्ठ वृक्षों के निकट, नव सृजित पल्लवि क्या कहें,
सो गया साहित्य तो कवि क्या कहे !
खो गयी यदि कलम तो कैसे सहे ?
किन्तु सोयेगा नहीं चिर नींद, यह विश्वास मेरा,
चीर वक्षस्थल तिमिर का, फिर जगेगा तेज तेरा !
वेद, ऋषि-मुनि विद्वजन की यह धरा है पुण्यशाली,
व्याप्त हैं आदर्श उनके, रग-रगों में श्रेष्ठकारी !
फिर बजेगी दुन्दुभी जग में, सुखद अंकुर उगेगा,
सर्वहितकारी सनातन राष्ट्र की छवि क्या कहे !
सो गया साहित्य तो कवि क्या कहे !
खो गयी यदि कलम तो कैसे सहे ?
– नवीन जोशी ‘नवल’
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