बैठा हूँ नील गगन के तले
अपनी यादों की चादर इस कदर बिछाए
जैसे हरे भरे पेड़ों के नीचे
मन मोहक घटा छा जाती है
मन मे एक लहर सी उठ जाती है
जैसे हरे घास के मैदानों मे
कोई हवा सी गुजर जाती है
देख के प्रकृति का यह मानमोहक रूप
जैसे बचपन की सारी शरारते
फिर से दृष्टिपटल पर छा जाती है
खिल उठती है मुस्कान चेहरे पे
ओर याद अपनो की आ जाती है
देख के लहलहाते खेतो को
वो उनमे बिताए पल याद आते हैं
माँ के साथ किया था काम जिन खेतो मे
आज वो सिर्फ यादें बन कर रह जाते है
शायद कहा किसी ने सही ही है
कि उड़ जाते हैं पंछी खाली बसेरे रह जाते है
वो घूमना गली मोह्हलों मे
ओर खेलना गली क्रिकेट
होती थी तू तू मे मे पर
दिल मे ना होता था बेर
एक पल का झगड़ा ओर एक पल का बेर
होता ना था कपट दिल मे
ना ही कोई भेद था
इसीलिए अपना बचपन ही सबसे प्यारा था
आज सिर्फ़ यादें है बचपन की
ओर कुछ भूली बिसरी बातें
चले गए वो दिन ओर
खो गई कहीं वो राते
जब उठते ना थे स्कूल को
तो माँ की गालियाँ उठाती थी
लगती थी वो गाली जैसी
पर प्यारी फिर भी होती थी
माँ के हाथ की बनी रोटी भी
अमृत के जैसी होती थी
वो पापा के कंधो पर बैठना
किसी रोमांचक सफर के जैसा था
वो आने पर नए कपड़ो की खुशी
मानो चाँद पे जाने जैसा था
वो भाई बहन के झगड़ों मे
मम्मी का मनाना अच्छा था
वो कागज की कस्ति को लेकर
पानी मे तैराना अच्छा था
वो बैठ के स्कूल की बेंच पे
पेंसिल को चलाना अच्छा था
वो करके बहाना टीचर से
राउंड लगाना अच्छा था
पर गए वो दिन अब लौट ना पाए
बीते दिन हम भूल ना पाए
हुए जवां ओर गया बचपना
बिछड़े एक सूत्र से गया अपनापना
काश के लौट पाए वो समा
हो खुशहाली मिल जाए कोई सागा
मिल जाए दो अपने इस तरह
जो हो जाए माहोल खुशनुमा
जो हो जाए माहोल खुशनुमा
💐💐💐धन्यवाद 💐💐💐
रचनाकार – पवन कुमार
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