बैठे बैठे आज अचानक ही

मन में एक सवाल उमड़ आया

प्रेम क्या है?

क्या किसी को देख कर

मन में उठने वाले आकर्षण के भाव को ही

प्रेम कहते हैं?

या एक दूसरे के पास रहना

या एक दूसरे को पा लेना ही

प्रेम का वास्तविक अर्थ है?

नहीं

प्रेम का वास्तविक अर्थ

इतना संकुचित कैसे हो सकता है?

क्या लैला-मजनू, हीर-रांझा का प्रेम

आज के प्रेमियों के समान था?

प्रेम का वास्तविक अर्थ

किसी से कुछ पाने के अर्थ में नहीं

बल्कि किसी को कुछ देने के अर्थ में होता है

प्रेम अपने अंश को सामने वाले में डाल देना होता है

जिससे प्रेमियों को एक दूसरे में

स्वयं का ही अंश दिखाई देता है

और वे दो जिस्म होते हुए भी

एकाकार हो जाते हैं।

© दीपक चौधरी


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Deepak Chaudhary

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