बाज़ार में मसगूल था वो,
मुनाफे की आस लगाए।
कि आज उसके बच्चों को,
दो वक़्त की रोटी नसीब हो जाए।
गलियों में फिर रहा था,
साइकिल की घंटी बजाता।
सामानो से भरा पड़ा वो,
रुपए 15 में हर सामान दिलवाता।
कर्ज में डूबा परा वो,
फिर भी चेहरे पर चमक थी।
परिवार संग पर्व मनाने को जो,
उम्मीदें दृढ़संकल्प थी।
शाम हुई, सामान बिक न सकी,
अपने भाग्य पर पछताता रहा।
भीख मांगने की नौबत आ चुकी थी,
सरक किनारे वह तरसता रहा।
किस मुंह से वह घर जाए,
पत्नी – बच्चो को क्या बतलाए।
कपड़े, मिठाई कहां से दिखलाए,
इसी उधेड़बुन में फंसा रहा।
अंधेरा गहरा रही थी,
किनारे सरक के वह बैठ गया।
कल्पना से परे उसके,
हुआ कुछ ऐसा हादसा।
पास से गुजरी सवारी,
हवा में तैरी एक कागज़ प्यारी।
पास गिरी वह भौचक्का रहा,
थी वह कागज़ नोट प्यारी।
लगा कि ईश्वर ने सुनी पुकार,
हुआ तरस उन्हें भी यार।
गरीबों की मदद के खातिर,
भेजा एक छोटा उपहार।
खुशी खुशी वह घर चला,
रास्ते में मिठाई लिया।
परिवार संग पर्व मनाने,
वह भाव – विभोर होता रहा।
किसी की कमी पूरी हुई,
पर कितने निराश रहे।
कितनो के सपने अधूरे रहे,
कितनो के पर्व फिके परे।
यही दुनिया की रीत है,
कभी किसी की जीत है।
कभी किसी की हार है,
फिर भी मन रहा हर त्योहार है।
नाम- आशीष आनंद
पता – जवाहर नवोदय विद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार
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