– रस का सम्बंध आनंद से है | कविता को पढ़ने या नाटक को देखने से पाठक ,श्रोता अथवा दर्शक को जो आनंद की अनुभूति होती है ; उसे रस कहते है |
– रस की अनुभूति एवं निष्पत्ति के सम्बंध में आचार्य भरतमुनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “ नाट्यशास्त्र “ में एक सूत्र दिये है ; जो इस प्रकार है –
“ विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति “ | अर्थात् विभाव , अनुभाव तथा व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है | इस सूत्र को रस निरूपण के रूप में प्रथम स्थान दिया जाता है भरत मुनि का समय अनुमानत: ई.पू. द्वितीय तथा ई.पू. प्रथम के बीच निर्धारित किया जाता है | आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा कहा है |
भरत मुनि के रस सूत्र के प्रमुख व्याख्याता आचार्य चार है ; जो निम्न प्रकार से है –
भट्ट लोल्लक – ये रस सूत्र के प्रथम व्याख्याता आचार्य थे | इनके मत को ‘उत्पत्तिवाद’ या आरोपवाद कहा जाता है | एक अन्य नाम उपचयवाद भी है |
आचार्य शंकुल – ये रस सूत्र के दूसरे व्याख्याता आचार्य है | इनका मत अनुमितिवाद कहा जाता है |
भट्टनायक – ये रस सूत्र के तीसरे व्याख्याता आचार्य है | इनका मत ‘ भुक्तिवाद ‘ कहलाता है |इन्होने “ साधारणीकरण का सिद्धांत “ दिया |
अभिनव गुप्त – ये रस सूत्र के चौथे व्याख्याता आचार्य है | इनका मत ‘ अभिव्यक्तिवाद ‘ कहलाता है |
भरत मुनि के सूत्र से स्पष्ट है कि विभाव,अनुभाव तथा व्यभिचारी ( संचारी ) भावों के संयोग से रस निष्पन्न होता है | इस प्रकार रस के मुख्य रूप से चार अंग है | जो निम्न है –
स्थायी भाव
विभाव
अनुभाव
व्यभिचारी भाव (संचारी भाव )
इन चारों अंगों के बारे में जानना आवश्यक है | जिसका वर्णन निम्न प्रकार है –
स्थायी भाव – मनुष्य के अंत:करण में ( हृदय ) जो भाव स्थायी रूप से विद्यमान रहते है | जिन्हे कोई विरुद्ध भाव दबा नहीं सकता , उन्हे स्थायी भाव कहते है |
रस | स्थायी भाव |
श्रृंग़ार | रति |
हास्य | हास |
वीर | उत्साह |
रौद्र | क्रोध/अमर्ष |
भयानक | भय |
अद्भुत | विस्मय |
करूण | शोक |
वीभत्स | जुगुप्सा / घृणा |
शांत | निर्वेद ( वैराग्य ) |
भरत मुनि ने मूल रूप से प्रथम 8 रसों को ही स्वीकार किया था | परवर्ती आचार्यों में अभिनव गुप्त ने तत्व ज्ञान को शांत रस का स्थायी भाव मानते हुए प्रमुख स्थान दिया | इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या नौ हो गयी |
विभाव – सामाजिक या सहृदय में स्थायी भावों को जागृत करने में जो कारण रूप तत्व है ; उसे विभाव कहते है | विभाव के कारण ही स्थायी भाव जागृत होते है | स्थायी भावों को जागृत करने में विभाव की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है |
विभाव के दो भेद है : –
आलम्बन विभाव
उद्दीपन विभाव
आलम्बन विभाव – जिस वस्तु या व्यक्ति के कारण स्थायी भाव जागृत होते है , उसे आलम्बन विभाव कहते है | जैसे – नायक -नायिका, प्रेमी – प्रेमिका आदि | आलम्बन विभाव के दो अंग है –
आश्रयालम्बन – जिस व्यक्ति या वस्तु में स्थायी भाव जागृत होता है , उसे आश्रयालम्बन कहते है |
विषयालम्बन – जिस व्यक्ति या वस्तु के कारण आश्रय के हृदय में स्थायी भाव जागृत होते है , उसे विषयालम्बन कहते है |
उद्दीपन विभाव – ये आलम्बन विभाव के सहायक है , जो भाव को उद्दीप्त करने का कार्य करते है | आलम्बन की चेष्टायें , बाह्य वातावरण आदि उद्दीपन विभाव के अंतर्गत आते है | उद्दीपन विभाव आग में घी डालने का कार्य करते है | जिससे आलम्बन के मनोभाव उद्दीप्त हो जाते है |
स्पष्टीकरण –
इसे उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है –
पुष्प वाटिका में राम है | वहाँ राम सीता को देखते है | मंद-मंद सुगंधित हवा बह रही है | चारों ओर फूल खिले है |
इसमें राम आश्रय है क्योकि राम के हृदय में सीता के प्रति ‘ रति ‘भाव है | सीता ,विषय है | सुगंधित हवा का बहना , खिले फूल आदि ,उद्दीपन विभाव है |
अनुभाव – स्थायी भावों का अनुभव कराने वाले भावों को अनुभाव कहते है | जिन कार्यों के द्वारा रति आदि स्थायी भावों का अनुभव होता है , वे अनुभाव की श्रेणी में आते है | आलम्बन के शारिरिक और मानसिक वे सभी चेष्टाएँ जो मनोगत भावों को व्यक्त करती है, अनुभाव कहलाती है | अगर इसके शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दिया जाय तो , अनुभाव दो शब्दों का रूप है – अनु + भाव | इसका अर्थ होगा- भावों का अनुसरण करने वाला |
अनुभाव के उदाहरण-
क्रोध में आंखे लाल होना , उत्साह में अपने शत्रु को ललकारना आदि |
अनुभाव के भेद – अनुभाव के चार भेद है –
कायिक या आंगिक
वाचिक
आहार्य
सात्विक
कायिक या आंगिक अनुभाव – शरीर की चेष्टाओं या क्रियाओं से प्रकट होने वाले भाव कायिक या आंगिक अनुभाव कहलाते है | जैसे- पैर पटकना , आँखों का फड़कना आदि |
वाचिक अनुभाव – ये अनुभाव वाणी से प्रकट होते है |
आहार्य – पात्र द्वारा बाह्य रूप से ग्रहण किये गये वेश-भूषा , अलंकार , साज –सज्जा आदि इसके अंतर्गत आते है |
सात्विक – शरीर की वे क्रियाएँ जिस पर हमारा वश नहीं होता , उसे सात्विक अनुभाव कहते है | इनकी संख्या आठ है | जो इस प्रकार है –
1 | स्वेद | पसीना आ जाना |
2 | कम्पन | विभिन्न कारणों से शरीर का काँपना |
3 | रोमांच | रोंगटे खड़े हो जाना |
4 | स्तम्भ | प्रसन्नता , लज्जा आदि कारणों से शरीर की गति का रुक जाना | |
5 | स्वर भंग | हर्षातिरेक आदि कारणों से मुख से आवाज का न निकल पाना | |
6 | अश्रु | आँखों से आँसू आना |
7 | वैवर्ण्य | शरीर का रंग उड़ जाना आदि |
8 | प्रलय | भय ,शोक आदि कारणों से इंद्रियों का चेतना शून्य हो जाना | |
व्यभिचारी या संचारी भाव – मनोविकारों को संचारी भाव कहते है |ये स्थायी भावों को पुष्ट करते है ,तथा रसावस्था तक ले जाते है | संचारी भाव पानी के बुलबुले की तरह उठते रहते है तथा शांत हो जाते है |
संचारी भावों की संख्या 33 है , जो इस प्रकार है –
निर्वेद | ग्लानि | दैन्य |
मोह | मद | शंका |
आवेग | श्रम | जड़ता |
उग्रता | वितर्क | चिंता |
विषाद | व्याधि | आलस्य |
त्रास | अमर्ष | हर्ष |
असूया | गर्व | स्मृति |
धृति | औत्सुक्य | मति |
चापल्य | व्रीड़ा ( लज्जा ) | अवहित्था |
विबोध | उन्माद | स्मृति |
अपस्मार | स्वप्न | मरण ` |
रस के भेद लक्षण व उदाहरण
आचार्य भरत मुनि ने 8 रसों की कल्पना की थी | परवर्ती आचार्यों अभिनव गुप्त ,आचार्य मम्मट ,विश्वनाथ आदि ने 9 वें रस शांत रस को माना | धीरे –धीरे यह संख्या 11 तक पहुँच गयी |
रस और उसके स्थायी भाव
रस | स्थायी भाव |
1. श्रृंगार रस | रति |
2. हास्य रस | हास |
3. वीर रस | उत्साह |
4. रौद्र रस | क्रोध / अमर्ष |
5. भयानक रस | भय |
6. अद्भुत रस | विस्मय |
7. करूण रस | शोक |
8. वीभत्स रस | जुगुप्सा ( घृणा ) |
9. शांत रस | निर्वेद |
10. वात्सल्य रस | संतान विषयक रति |
11. भक्ति रस | भगवद् विषयक रति |
मूलत: 9 रस और 9 स्थायी भाव ही माने गये है |जो दो रस बढ़े है उनका स्थायी भाव रति के अंतर्गत ही माना जायेगा | वात्सल्य रस का स्थायी भाव – संतान विषयक रति | भक्ति रस का स्थायी भाव है – भगवद् विषयक रति |
जहाँ स्त्री –पुरूष या नायक – नायिका के पारस्परिक रति स्थायी भाव , विभाव और संचारी भाव के संयोग से पुष्ट होकर परिपक्व अवस्था को प्राप्त करता है , वहाँ श्रृंगार रस होता है |
श्रृंगार रस की उत्पत्ति – शृंग + आर से हुई है | श्रृंग का अर्थ है – काम की वृद्धि तथा आर का अर्थ प्राप्त करना | अत: कामवासना की वृद्धि तथा प्राप्त करना ही श्रृंगार रस है |
आचार्यों ने श्रृंगार रस को “ रसराज “ की उपाधि से विभूषित किया है | श्रृंगार रस के दो भेद है –
संयोग श्रृंगार
वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार
संयोग श्रृंगार – जहाँ नायक – नायिका या प्रेमी – प्रेमिका के संयोग की दशा में प्रेम पूर्ण वार्तालाप ,दर्शन , स्पर्श आदि का वर्णन होता है , वहाँ संयोग श्रृंगार होता है |
उदाहरण- कर मुंदरी की आरसी ,प्रतिबिम्बित प्यौ पाई |
पीठ दिये निधरक लखै , इकटक दीठि लगाइ ||
स्पष्टीकरण –
इस उदाहरण में संयोग श्रृंगार रस है –
स्थायी भाव – रति
आश्रय – नवोढ़ा वधू
आलम्बन – प्रियतम ( नायक )
उद्दीपन – प्रियतम का प्रतिबिम्ब
अनुभाव – लगातार प्रतिबिम्ब को देखना
व्यभिचारी भाव – औत्सुक्य , हर्ष
अन्य उदाहरण –
वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार – जहाँ नायक –नायिका या प्रेमी – प्रेमिका का परस्पर प्रेम सम्बंध हो, परंतु मिलन न हो वहाँ वियोग श्रृंगार होता है |
उदाहरण –
अँखिया हरि दर्शन की भूखी |
कैसे रहे रूप –रस राँची , ये बतियाँ सुन रुखी
अवधि गनत इकटक मग जोवत , तन ऐसा नहिं भूखी ||(सूरदास)
स्पष्टीकरण-
रस – वियोग श्रृंगार
स्थायी भाव – रति
आश्रय – गोपियाँ
आलम्बन – श्री कृष्ण
उद्दीपन – श्री कृष्ण का रूप सौंदर्य
अनुभाव – गोपियों का प्रतीक्षा में व्याकुल होना |
संचारी भाव – विषाद – स्मृति
विभोग श्रृंगार के भेद –
पूर्वराग वियोग
मानजनित वियोग
प्रवास जनित वियोग
अभिशाप जनित वियोग
किसी भी व्यक्ति के विचित्र आकार , वेशभूषा ,ढ़ंग आदि को देखकर हृदय में जो भाव जागृत होता है, उसे हास कहते है | वही हास विभावादिसे पुष्ट होकर हास्य रस कहलाता है |
उदाहरण –
हँसि – हँसि भाजैं देखि दूलह दिगम्बर कौ ,
पाहुनी जो आवैं हिमाचल के उछाह में |
कहे ‘ मद्माकर’ सु काहू सो कहै सो कहाँ ,
जोई जहाँ देखे सो हँसई तहाँ राह में ||
स्पष्टीकरण –
रस – हास्य रस
स्थायी भाव – हास
आलम्बन विभाव – शिव जी का विचित्र रूप रेखा
अनुभाव – हँसते –हँसते भागना , लोट –पोट होना
संचारी भाव – हर्ष ,औत्सुक्य
नोट – हास्य रस में आलम्बन ही उद्दीपन का कार्य करताहै | अलग से उद्दीपन नहीं होता है |
युद्ध या अन्य शौर्य पराक्रम वाले कार्य के द्वारा हृदय में स्थित उत्साह स्थायी भाव का जब विभाव , अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वीर रस की पुष्टि होती है |
उदाहरण –
सौमित्र से घननाद का रव अल्प भी न सहा गया |
निज शत्रु को देखे बिना , उनसे तनिक न रहा गया ||
रघुबीर से आदेश ले , युद्धार्थ वे सजने लगे |
रणवाद्य भी निर्घोष करके , धूम से बजने लगे ||
स्पष्टीकरण –
रस – वीर रस ( युद्धवीर )
स्थायी भाव – उत्साह
आश्रय – सौमित्रि ( लक्ष्मण )
आलम्बन – मेघनाद
उद्दीपन विभाव – घननाद का रव
अनुभाव – युद्ध के लिये सजना
संचारी भाव – उग्रता एवं औत्सुक्य
वीर रस के भेद – वीर रस के चार भेद है –
युद्धवीर
दानवीर
दयावीर
धर्मवीर
विरोधी या शत्रु के अनुचित चेष्टाओं अथवा उसके द्वारा किये गये अनुचित क्रिया कलापों से उत्पन्न क्रोध का वर्णन विभाव आदि के संयोग से रौद्र रस में परिवर्तित हो जाता है, उसे रौद्र रस कहते है | गुरुजन निंदा ,अपकार , मानभंग आदि से भी यह प्रकट होता है |
उदाहरण –
श्री कृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे |
सब शोक अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे |
संसार देखे सब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े |
करते हुये यह घोषणा वे हो गये उठ कर खड़े |
उस काल मानो क्रोध के तन कांपने उनका लगा |
मानों हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा || ( मैथिलीशरण गुप्त )
स्पष्टीकरण –
रस – रौद्र रस
स्थायीभाव – क्रोध
आश्रय – अर्जुन
आलम्बन – जयद्रथ
उद्दीपन – श्री कृष्ण के वचन
अनुभाव – शरीर का काँपना , क्रोध से हाथ मलना
संचारी भाव –श्रम ,आवेग, उग्रता आदि |
किसी भयानक दृष्य ,वस्तु तथा व्यक्ति आदि को देखते , सुनने तथा स्मरण होने से जो भय होता है | वहाँ भय स्थायी भाव विभावादि से पुष्ट होकर रस रूप में परिणत होता है तो उसे भयानक रस कहते है |
उदाहरण-
एक ओर अजगरहि लखि ,एक ओर मृगराय |
विकट बटोही बीच ही ,परयो मुर्च्छा खाय ||
स्पष्टीकरण –
रस – भयानक रस
स्थायी भाव – भय
अनुभाव – कम्प, प्रलय आदि
आश्रय – यात्री ( बटोही )
आलम्बन – अजगर एवं मृगराय
व्यभिचारि भाव – चिन्ता , शंका , मरण , विषाद आदि
जहाँ किसी अद्भुत या आसाधरण व्यक्ति या दृश्य को देखकर आश्चर्य का भाव उत्पन्न होता है | यही विस्मय स्थायी भाव , विभावादि भावों के संयोग से रस रूप में परिणत होता है , तो वहाँ अद्भुत रस होता है |
उदाहरण –
देख यशोदा शिशु के मुख में सकल विश्व की माया |
क्षण भर को वह बनी अचेतन , हिल न सकी कोमल काया |
स्पष्टीकरण –
रस – अद्भुत रस
स्थायी भाव – विस्मय
आश्रय – यशोदा माता
आलम्बन – बालक श्री कृष्ण के मुख में सम्पूर्ण विश्व का दर्शन
उद्दिपन – विचित्र दृश्य , विराट रूप दर्शन
अनुभाव – पुलक, एक टक देखना
संचारीभाव – मति , विबोध , जड़ता आदि
किसी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के विनष्ट होने से हृदय में जो क्षोभ होता है , उसे शोक कहते है | यही ‘ शोक ‘ स्थायी भाव ,विभावादि के संयोग से रस रूप में परिणत होता है ,तो उसे करूण रस कहते है |
उदाहरण –
अभी तो मुकुट बँधा था माथ ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ |
खुले भी न थे लाज के बोल ,
खिले थे चुम्बन शून्य कपोल |
हाय ! रुक गया यही संसार ,
बना सिंदूर अनल अंगार |
स्पष्टीकरण -
रस – करूण रस
स्थायी भाव – शोक
आश्रय – पत्नी
आलम्बन – मृतक पति
उद्दीपन – मुकुट , हल्दी लगे हाथ
अनुभाव – रूदन करना
संचारी भाव – स्मृति , चिंता , विषाद ,मरण
ऐसे दृश्य जिसको देखने या सुनने से मन के अंदर ग्लानि का भाव पैदा होता है , जिसको घृणा या जुगुप्सा कहते है | यही स्थायी भाव जागृत होकर विभावादि के संयोग से रस रूप में परिणत होता है | उसे वीभत्स रस कहते है |
उदाहरण –
कोई अँतड़िनि की पहरि माल इतरात दिखावत |
कोई चरबी लै चोप सहित , निज अंगनि लावत |
कोऊ मुंडनि लै माल मोद कंदुक लौ डारत |
कऊ रूंडनि पै बैठि , करेजो फारि निकारत |
स्पष्टीकरण –
रस – वीभत्स रस
स्थायी भाव – जुगुप्सा ( घृणा )
आलम्बन – शमशान का दृश्य
उद्दीपन –आंतों की माल पहनना,सीने पर बैठना ,कलेजा फाड़कर निकालना |
अनुभाव – दृश्य को देखकर मुँह फेर लेना
संचारी भाव – ग्लानि,दीनता , ब्रीणा आदि |
जहाँ संसार से विरक्ति का भाव जागृत हो जाय, संसार की असारता का ज्ञान हो जाय ,वहाँ शान्त रस होता है | निर्वेद स्थायी भाव , विभावादि के संयोग से रस रूप में परिणत होता है | शांत रस होता है | मनुष्य को संसार का सब कुछ छोड़कर हरि कीर्तन ,ईश गुण ,श्रवण आदि में आनंद की प्रतीति होने लगती है |
उदाहरण –
अव लौ नसानी , अब न नसैहौ |
रामकृपा भव निशा सिरानी , उर करते न खसैहौ ||
पायौ नाम चारू चिंतामणि , उर करते न मसैहौ |
श्याम रूप रूचि रूचिर कसौटी ,उर कंचनहि कसैहौ ||
परवस जानि हस्यौ इन इंद्रिन , निज बस इवै न हसैहौ |
मन मधुकर पन करि तुलसी , रघुपति पद कमल बसैहौ ||
स्पष्टीकरण
रस – शांत रस
स्थायी भाव – निर्वेद
आश्रय – कवि तुलसी दास
आलम्बन – संसार की नश्वरता का ज्ञान
उद्दीपन – साधु – संगति , शास्त्रों का अध्ययन
अनुभाव – रोमांच
संचारीभाव – धैर्य ,मति , विवोध ,हर्ष आदि |
संतान के प्रति माता –पिता का जो प्रेम भाव रहता है | उसे वात्सल्य कहते है | वात्सल्य स्थायी भाव जब विभाव के संयोग से रस रूप में परिणत होता है , तो उसे वात्सल्य रस कहते है |
पहले वात्सल्य रस को श्रृंगार रस के अंतर्गत माना जाता था , परंतु साहित्य में इस रस को स्वतंत्र मान्यता मिल गयी है |
उदाहरण –
यशोदा हरि पालने झुलावै |
हलरावै दुलरावै जोई–सोई कुछ गावै,
जसुमति मन अभिलाष करें |
कब मेरो लाल घुटुरूवन रेगै ,
कब धरनि पग द्वै धरै ||
स्पष्टीकरण-
रस – वात्सल्य रस
स्थायी भाव – संतान विषयक रति
आश्रय – यशोदा
आलम्बन – श्रीकृष्ण
उद्दीपन – बालक की चेष्टाएँ , क्रीडाएँ
अनुभाव – बालक को लोरी सुनाना
संचारी भाव – आवेग, हर्ष आदि |
ईश्वर के प्रति भक्त का जो प्रेम रहता है , उसे देव विषयक रति कहते है | यही देव विषयक रति स्थायी भाव जब विभावादि के संयोग से रस रूप में परिणत होता है तो उसे भक्ति रस कहते है |
भक्ति रस को भी हिंदी साहित्य में पृथक से मान्यता मिलने से रसों की संख्या 11 हो गयी है | भक्ति रस में ईश्वर के सानिध्य , प्रेम , अनुराग आदि का वर्णन किया जाता है |
उदाहरण –
मै तो सांवरे के संग रांची |
साज सिंगार बांधि पग घुंघरन , लोक लाज तजि नाची |
गई कुमति लयि साधु की संगति ,भगति रूप भयि सांची |
स्पष्टीकरण –
रस – भक्ति रस
स्थायी भाव – ईश्वर विषयक रति
आश्रय– मीराबाई
आलम्बन- श्री कृष्ण
अनुभाव – श्रृंगार आदि
उद्दिपन – ईश्वर का मनमोहक रूप ,साधुओं की संगति आदि
संचारी भाव – हर्ष , निर्वेद , सुख आदि |
——- 0 ——–
Please donate for the development of Hindi Language. We wish you for a little amount. Your little amount will help for improve the staff.
कृपया हिंदी भाषा के विकास के लिए दान करें। हम आपको थोड़ी राशि की कामना करते हैं। आपकी थोड़ी सी राशि कर्मचारियों को बेहतर बनाने में मदद करेगी।