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क्रुर संस्कृति, निकृष्ट परंपरा का
यह अपकर्ष हमें अंगीकार नहीं,
धुंध भरे इस राहों में
यह नववर्ष कभी स्वीकार नहीं ।
अभी ठंड है सर्वत्र कुहासा , अलसाई अंगड़ाई है,
ठीठुरी हुई धरा – नील-गगन, कैसी सुंदरता ठिठुराई है।
बाग बगीचों में नहीं नवीनता, नहीं नूतन पल्लवों का उत्कर्ष ;
विहगों का झुंड सहमी – दुबकी ,अन्य वन्यजीवों में भी नहीं हर्ष ।
हिमाच्छादित चादरों से ढकी धरा ,
कुहासा कैसी फैल हर-ओर रही,
खेत-खलिहानों में फैली नीरसता;
सूनी प्रकृति झकझोर रही ।
मत भूलो अपनी मर्यादा, संस्कृति संस्कारों का आवरण,
चीर प्रतिष्ठित , प्राची-चीर महान ;
दृढ-सत्य- विशुद्ध आचरण !
घायल धरणी की पीड़ा को
क्या समझ सके भारतवासी ?
जिनके षड्यंत्रों से घिरा राष्ट्र ,
आज अधिक व्यथित खंडित त्रासी !
‘अरि’ की यादों में निज दर्द भूल ,
खो स्वाभिमान मुस्काते हैं ,
देश-भक्ति का कैसा ज्वर चढ़ा- रचा ,
यह कलुषित नव वर्ष मनाते हैं।
यह देख मुझे आवे हांसी
क्या भूल गए भारतवासी ?
उस दिन ! थी जब छाई उदासी
प्रताड़ित शोषित असंख्य जन-जन सन्यासी।
छोड़ो ! रुक जाओ ! तिमिर भगे ,
प्रकृति हो जाए विशुद्ध स्वरूप ;
फाल्गुन का निखरे रुप सुघर ,
तब मने उत्सव मंगलस्वरुप!
प्रकृति जब उल्लसित होगी, भास्कर जब होंगे दिनमान
शुद्ध -विशुद्ध ,धवल चांदनी सर्वत्र फैलाये नवल विहान,
ज्ञानी -ध्यानी ,यति व्रति जनों से- ले जीवों में भी फैले मुस्कान;
शस्य श्यामला धरती माता, फैला दे मनोहारी मंगल गान !
तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि सादर नववर्ष मना लेना ;
आर्यावर्त की विघटित धरणी पर, मंगल हर्ष मना लेना!
मंगल हर्ष मना लेना ,अपना नववर्ष मना लेना !
– कवि आलोक पाण्डेय
[( वाराणसी , भारतभूमि )]
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