**********बुधवा*********
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हरिराम का शव धीरे धीरे अकड़ता जा रहा था। आखिर कब तक एक लाश सही हालत में रह सकती थी? लेकिन हरिराम का छोटा लड़का बुधवा करे भी तो क्या करे? हरिराम के मरते ही उसने अपने दोनों बड़े भाइयों को टेलीग्राम करके पिता के मरने की खबर कर दी लेकिन अभी तक वे नहीं आए थे पूरे चौबीस घंटे हो गये थे। वैसे भी एक बार जब वे दोनों शहर पैसा कमाने निकले तो कभी गाँव आए ही नहीं। चार महीने पहले ही तो उनकी अम्मा मरी थी तब हरिराम ने खबर भेजी थी उनको, लेकिन उन्होंने न आने का बहाना बना दिया। दोनों जानते थे अम्मा के क्रियाकर्म में पैसा उनको ही लगाना पड़ेगा, क्योंकि हरिराम और बुधवा गाँव वालों के खेतों में मजदूरी करके दिनभर जो कमाते थे वह सब शाम को शराब में उड़ा देते थे। उनकी अम्मा खाना और दवा के अभाव में ही तो चल बसी थी।

हरीराम का अपने शहरी लड़कों को गाँव बुलाने का आशय यही था कि शहरी लड़कों के आने से उसकी पत्नी सुधो का अंतिम संस्कार हो जाएगा वरना उसको और बुधवा को अकेले ही उसे शमशान घाट ले जाना पड़ेगा। गाँव वाले भी हरिराम की पत्नी के शव के साथ जाने से कतरा रहे थे। वे भी दोनों लड़कों की तरह डर रहे थे कि वे अगर सान्तवना देने हरिराम के पास आएँगे वह उनसे रुपया माँगने के लिए गिड़गिड़ाएगा और ऐसे समय में वे मना नहीं कर पाएँगे।

जैसे तैसे बाप बेटा ने घर के बचे दो चार बर्तनों को बेचकर सुधो के शव को शमशान घाट पंहुचाया और उसका क्रियाकर्म करके बड़ी चालाकी से थोड़े पैसे बचा लिए। आखिर इतना बड़ा दुःख उनके ऊपर पड़ा था, उस दुःख को भुलाने के लिए शराब भी तो पीनी थी।

हरिराम अपनी वसीयत में कर्जों की लिस्ट बुधवा को देकर गया था। सुखिया दूधवाले का दो सौ रुपया, सुघनिया परचून वाली का डेढ़ सौ रुपया, बिशेसर का ढाई सौ रुपया। सबसे बड़ा कर्जा तो मुखिया का था, पूरा एक हजार रुपया। इतना तो एक पुरानी कापी में बुधवा ने लिखा था, बाकी तो तकाजा करने जब लोग आएँगे तब पता चलेगा।

बुधवा को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने बाप का अंतिम संस्कार कैसे करे? गाँव वालों से तो कोई मदद की उम्मीद नहीं थी। वह जानता था जिसके पास भी वह पैसा माँगने जाएगा वही हरिराम के पिछले उधार का हिसाब करने बैठ जाएगा। जब से हरिराम की तबीयत खराब हुई थी तभी मुखिया ने बुधवा से कहा था,

“देख बुधवा! अगर तुम दीवाली के दूसरे दिन तलक हमरा सारा रुपया नहीं दिए तो समझ लेओ तुमका हम बंधुआ मजूर बना लेंगे।”

“बंधुआ मजदूर? यानी के गुलाम?”

गुलाम शब्द दिमाग में आते ही बुधवा की आँखों के आगे भय की चादर फैल गयी। वह काँपने गया। वह जानता था कि मुखिया ने गाँव के जितने लोगों को गुलाम बनाया था उनकी ज़िंदगी जानवर के जैसे हो गयी थी।
तभी मुखिया बोला,

“याद रखियो दीवाली के दूसरे दिन हमरा पूरा हजार रुपया मिल जाए। अउर हाँ..गाँव से भागने की कोशिश तो करे की सोचिओ भी न। वरना तुमाई हालत के जिम्मेबार तुमही होइओ।”

बुधवा ने इतना सुनने के बाद भी गाँव से भाग जाने की सोची, लेकिन अपने बीमार बाप को कैसे छोड़कर जाता? और अपने साथ लेकर भी नहीं जा सकता था। अगर भागते समय पकड़ा गया तो? यही सोचकर कभी गाँव से भागा नहीं। बस सोचता ही रहा भागने की।

24 घंटे से ज्यादा हो गये थे हरिराम को मरे हुए। गाँव में अभी तक किसी को भी इस बात का पता नहीं चला था। वैसे भी सभी दीपावली के पटाखे फोड़ने में व्यस्त थे। उनकी टूटी फूटी झोपड़ी गाँव से अलग थलग थी। लोग छूत के मरीज की तरह उनसे दूर ही रहना चाहते थे। बुधवा सामने बने हनुमान मंदिर के चबूतरे पर सिर पर हाथ धरे बैठा था। हरिराम की लाश घर के अंदर पड़ी थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे? कैसे अपने बाप की लाश को शमशान पंहुचाए? गाँव से भाग जाना चाहता था लेकिन लाश को ऐसे घर में छोड़कर जाने को उसका मन नहीं मान रहा था। तभी उसे मुखिया का ख्याल आया। कल ही उसे एक हजार रुपया देना है नहीं तो सारी ज़िंदगी उसे गुलाम बनकर नरक जैसी ज़िंदगी भुगतनी पड़ेगी। वह घबरा गया। लेकिन कोई रास्ता उसे नजर नहीं आ रहा था। जब बुधवा को कुछ समझ नहीं आया तो वह सीधे मंदिर के अंदर चला गया और हनुमान जी के आगे दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

“भगवन! अब तुमही कुछ करो। हमरा दिमाग ने तो काम करना बंद कर दिओ है। तुम या तो मुखिया से पीछा छुड़वा देओ या हमरे बाप की लाश का किरिया करम करे का कोई उपाय बता दो जिससे हम गाँव छोड़कर भाग सकें।”

तभी पता नहीं कहाँ से एक पटाखा आया और बुधवा की झोपड़ी पर गिरा। पटाखा गिरते ही छप्पर ने आग पकड़ ली। लोग अपने घरों से भागकर जब तक हरिराम के घर तक पंहुचे झोपड़ी ने पूरी तरह आग पकड़ ली थी। बुधवा के पैर अपने घर की ओर बढ़े ही थे कि तभी उसे ख्याल आया कि,

“ई तो बहुत बढ़िया हुओ जो घर मा आग लग गयी। अब बापू के किरया करम का भी कौनो झंझट नाही है।”

उसने भगवान के, फिर अपने घर की तरफ हाथ जोड़े शायद अपने बापू के.. और अंधेरे का फायदा उठाकर गाँव से भाग गया।

नाम: अलका श्रीवास्तव

जन्मतिथि: 7/10/1970

जिला: कानपुर
प्रदेश: उत्तर प्रदेश
देश : भारत
मो.न. 9453534254
पता: 105/521
आनंद बाग
कानपुर 208001

 


About Author


Alka Srivastava

मैं अलका श्रीवास्तव कानपुर में रहती हूं। मैं एक ग्रहणी हूं और घर परिवार से मिले समय में अपने लेखन के शौक को पूरा करती हूं। अब तक मेरी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
पहली "मनकही", जिसमें सामाजिक, भावनात्मक कहानियों और आसपास की घटनाओं का समावेश है।
दूसरी "बुद्धिमान चीकू नीकू और अन्य कहानियाँ", जिसमें बच्चों के लिए चंपकवन के भोले भाले जानवरों की कहानियाँ हैं, जिनसे बच्चों को कहानियों के माध्यम से नैतिकता का पाठ सीखने को मिलता है।

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