“आखिर ऐसी क्यूँ है तू माँ…”

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घर से बाहर जाते बखत

तेरी आँखों से न ओझल हो जाऊ मैं

उस हलक तक मुझे निहारती रहती है तू

आखिर ऐसी क्यूँ है तू माँ…।

 

तेरे टूट जाने में ही मेरा बनना तय था

फिर भी बेशर्म-सा उग रहा था मैं

और ख़ुशी-ख़ुशी ढ़ल रही थी तू

आखिर ऐसी क्यूँ है तू माँ…।

 

याद है वो दिन मुझे जब घर में

खाने वाले पांच और रोटी के टुकड़े थे चार

तब ‘मुझे भूख नहीं है’ ऐसा कहने वाली थी तू

आखिर ऐसी क्यूँ है तू माँ…।

 

आज सबकुछ बदला-बदला नजर आता है

फिर भी इस कैल्कुलेटरमूलक दुनिया में

न बदलने वाली सिर्फ एक ही शख्स है तू

आखिर ऐसी क्यूँ है तू माँ…।

 

कुदरत के उस सरल करिश्मे को सलाम

जिसका अक्स मैं खुद में पाता हूँ

अपना सबकुछ त्याग कर भी मुझे अपनी

प्रतिकृति होने का आभास कराती है तू

आखिर ऐसी क्यूँ है तू माँ…।

 

हमेशा शिकवा रहेगी मुझे तुझसे यह कि

क्यों तू  हमेशा लुटाती रही और मैं रहा लूटता

फिर भी शिकन तक नहीं तेरे माथे पर किंचित

आखिर ऐसी क्यूँ है तू माँ…।

 

© Meena Rohit


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Meena Rohit

आयकर अधिकारी , दिल्ली

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