अरण्य का अर्थ वन या जंगल होता है । आरण्यक के अर्थ के विषय में कहा गया है –“अरण्ये भवम्, अरण्यकम् ” अर्थात अरण्य (वन) में जो होता है, उसे आरण्यक कहते हैं । इस प्रकार आरण्यक का अर्थ किया जा सकता है कि “अरण्य में आत्मविद्या ,चिंतन ,मनन ,रहस्यात्मक विषयों पर पठन-पाठन का कार्य किया जाय ,उसे आरण्यक कहते हैं ।”
प्राचीन काल में ऋषि- मुनि या वे लोग जिनकी अध्यात्म में गहरी रुचि थी, वानप्रस्थ अवस्था के समय अरण्य में निवास करते थे । वे आत्मचिंतन, मनन में लीन रहते थे । कुछ ऐसी विशेष विधाएँ थी, जिसका प्रयोग मानव समाज में वर्जित था , इसलिए वे जंगलों में निश्चिंत होकर उसका प्रयोग करते थे , वहां उन्हें किसी प्रकार की मानसिक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता था । ऋषियों ने अपने प्रायोगिक ज्ञान को लिपिबद्ध किया । उस ग्रंथ को आरण्यक कहा गया । आरण्यक ग्रंथ कहे जाने के पीछे कारण यह था कि वे सभी ग्रंथ अरण्य अर्थात् जंगल में लिखे गये ।
आरण्यकारों का कर्मकांडो पर विशेष झुकाव नहीं था । उन्होंने ज्यादातर तत्वज्ञान की मीमांसा की है । इस कारण आरण्यक ग्रंथों को ब्राह्मण ग्रंथ एवं उपनिषद् के बीच की कड़ी माना जा सकता है । बौधायन धर्मसूत्र भाष्य (2-8-3) एवं गोपथ ब्राह्मण (2-10) में आरण्यकों को ‘ रहस्य ग्रंथ ‘ कहा गया है ।
नीचे तालिका में एक सूची दी जा रही है । जिसमें यह बताया गया है कि कौन सा आरण्यक ग्रंथ किस वेद से सम्बंधित है ।
वेद | आरण्यक ग्रंथ |
ऋग्वेद | (1) ऐतरेय आरण्यक (2) शांखायन या कौषीतकि आरण्यक |
यजुर्वेद 1 शुक्ल यजुर्वेद 2 कृष्ण यजुर्वेद | वृहदारण्यक तैत्तिरीय आरण्यक |
सामवेद | कोई आरण्यक नहीं |
अथर्ववेद | कोई आरण्यक नहीं |
यदि आरण्यकों का क्रम देखा जाए तो वैदिक साहित्य में वेद के बाद ब्राह्मण ग्रंथ आते हैं , ब्राह्मण ग्रंथ के बाद आरण्यक और आरण्यक के बाद उपनिषद् आते हैं । आरण्यकों में ब्राह्मण ग्रंथों के और उपनिषदों के प्रतिपाद्य विषय मिलते हैं । ये सभी इस प्रकार मिश्रित हैं कि उनके बीच सीमा रेखा खींचना बहुत कठिन है । आरण्यक में यज्ञों के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन किया गया है । आध्यात्मिकता की ओर आरण्यकों का झुकाव रहा है ।
आरण्यक ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है —
इसका संबंध ऋग्वेद से है इसमें 18 अध्याय हैं जो 5 भागों में विभक्त हैं ।इस आरण्यक में प्राणविद्या ,आत्म स्वरूप का वर्णन , वैदिक अनुष्ठान , स्त्रियों का महत्व आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है ।
इसका संबंध ऋग्वेद से है । इसमें 15 अध्याय हैं । इस आरण्यक का अध्याय 3 से 6 अध्याय तक कौषीतकि उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें महाव्रतों, आध्यात्मिक अग्निहोत्र आदि का वर्णन किया गया है । इसमें विदेह काशी , कुरु-पांचाल आदि स्थलों का वर्णन है ।
इसका संबंध शुक्ल यजुर्वेद से है । बृहदारण्यक में आध्यात्मिक चर्चा अधिक मात्रा में पाया जाता है , इस कारण यह उपनिषद् के रूप में गिना जाता है । परंतु बीच-बीच में यज्ञों के रहस्य का वर्णन किया गया है ,इसलिए आरण्यक कहा जाता है ।
यह कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय शास्त्र का आरण्यक है । इसमें 10 परिच्छेद या प्रपाठक हैं । इसमें स्वाध्याय,अभिचार मंत्र ,पितृमेध आदि का वर्णन है । इसके सातवें आठवें और नौवें प्रपाठक को मिलाकर “तैत्तिरीय उपनिषद” कहा जाता है । 10वें प्रपाठक को “नारायण उपनिषद्” कहते हैं । इस प्रकार प्रपाठक 1 से 6 तक ही तैत्तिरीय आरण्यक है ।
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