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हिंदी साहित्य का भक्ति काल मध्य भाग का प्रारम्भिक भाग है | यह वह काल है जो वैचारिक समृद्धता और कला वैभव के लिये विख्यात रहा है | इस काल मे हिंदी काव्य मे किसी एक दृष्टि से नही अपितु अनेक दृष्टियो से उत्कृष्टता पायी जाती है | इसी कारण विव्दानो ने भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहा है |
हिंदी मे भक्ति साहित्य परम्परा का शुभारम्भ महाराष्ट्र के संत नामदेव की रचनाओ से माना जा सकता है |
विभिन्न विद्वानो ने भक्ति अन्दोलन के कारणो को अपने – अपने तरीके से व्याख्यायित किया है | भक्ति अन्दोलन के उदय के विभिन्न विद्वानो द्वारा भिन्न – भिन्न कारण बताये गये है | जिनका विवरण इस प्रकार है –
आचार्य राम चंद्रशुक्ल ने भक्ति अन्दोलन के उदय के निम्न कारण बताये है –
(i) जब देश मे मुस्लमानो का राज्य स्थापित हो गया तो हिन्दू जनता हताश, निराश एवं पराजित हो गयी थी | पराजित मनोवृत्ति मे ईश्वर की ओर उन्मुख होना स्वाभाविक था |
(ii) हिन्दू जनता ने भक्ति भवना मे माध्यम से अपनी आध्यात्मिक श्रेष्ठता दिखाकर पराजित मनोवृत्ति का शमन किया |
(iii) भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत मे था | 7 वीं शती मे आलवर भक्तो ने जो भक्ति भावना प्रारम्भ की उसे उत्तर भारत मे फैलने के लिये अनुकूल परिस्थिया प्राप्त हुई |
आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के मत से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि भक्ति भावना पराजित मनोवृत्ति की उपज नहीं है और न यह इस्लाम के बलात प्रचार के परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुई | आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी का तर्क यह भी है कि हिन्दू सदा से आशावादी जाति रही है | अगर भक्ति काल के कवियों को देखा जाय तो किसी भक्ति कवि मे निराशा का पुट नही है |
सर जार्ज ग्रियर्सन भक्ति अन्दोलन का उदय ईसाई धर्म के प्रभाव को मानते है | उनका यह भी मानना है कि रामानुजाचार्य को भावावेश और प्रेमोल्लास के धर्म का सन्देश ईसाइयों से मिला |
निष्कर्ष स्वरूप हम यह कह सकते है कि हिंदी साहित्य मे भक्ति अन्दोलन का प्रारम्भ दक्षिण भारत के आलवर भक्तो की परम्परा मे हुआ | भक्ति अन्दोलन प्राचीन भारतीय ज्ञान एवं दर्शन के एक अविछिन्न धारा है , जो अत्यंत शक्तिशाली एवं व्यापक है |
भक्ति – साधन और प्रकार – भागवत पुराण के अंतर्गत भक्ति के नौ साधनो का उल्लेख मिलता है |जिसे नवधा भक्ति कहते है | जिसका विवरण इस प्रकार है –
श्रवण का तात्पर्य भगवान के गुण नाम और लीलाओ का श्रवण करना |
प्रवचन , ब्याख्या , स्तवन , स्रोत पाठ , कथा आदि कीर्तन के अन्तर्गत आते है |
स्मरण से तात्पर्य है – भगावान के नाम , गुण और लीलाओं का स्मरण करना |
पाद सेवन चरण सेवा को माना जाता है |
ईश्वर को प्रमाण करना वन्दना के अन्तर्गत आता है |
अपने आप को भगवान का दास मानना | भक्तिकाल के कवि तुलसीदास की भक्ति दास्य भाव की ही है |
यह भक्ति का ऐसा साधन है जिससे हृदय निर्मल और निश्चल होता है |
ईश्वर को अपना सखा या मित्र समझना ही सख्य भाव है |महाभारत मे अर्जुन सख्य भाव के उदाहरण है |
इसका तात्पर्य है कि भक्ति अपने आप को पूरी तरह से ईश्वर के चरणों मे समर्पित कर दे अथवा ईश्व्वर के चरण मे चला जाय |
सिद्धान्त या सम्प्रदाय का नाम |
प्रवर्तक आचार्य का नाम |
विशिष्टाव्दैतवाद | रामानुजाचार्य |
व्दैतवाद (ब्रह्म सम्प्रदाय) | मध्वाचार्य |
अव्दैतवाद | शंकराचार्य |
राधाबल्लभी सम्प्रदाय | स्वामी हित हरिवंश |
शुद्धा व्दैतवाद | बल्लभाचार्य |
रामावत सम्प्रदाय | रामानन्द |
व्दैताव्दैतवाद | निम्बार्काचार्य |
सखी सम्प्रदाय | स्वामी हरिदास |
रुद्र सम्प्रदाय | विष्णु स्वामी |
गौडीय सम्प्रदाय (चैतन्य सम्प्रदाय) | चैतन्य महाप्रभु |
हरिदासी सम्प्रदाय | स्वामी हरिदास |
श्री सम्प्रदाय | रामानुजाचार्य |
भक्ति काल के वर्गीकरण को दो धाराओ में बाटा जा सकता है | जिसका विवरण निम्नलिखित है –
निर्गुण काव्य धारा को दो भागो मे बाँटा गया है |
इस धारा के प्रतिनिधि कवि कवीरदास जी है |
इस धारा के प्रतिनिधि कवि मलिक मोहम्मद जायसी है |
सगुण काव्य धारा को भी दो भागो मे बाँटा गया है |
इस धारा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास जी है |
इस धारा के प्रतिनिधि कवि सूरदास जी है |
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